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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् पुरुष इति वैधHदृष्टान्तः। असदेतत् – यतोऽत्रापि प्रयोगे साध्य-साधनयोः प्रतिबन्धाभावानातो हेतोर्विवक्षितसाध्यसिद्धिः। तथाहि – यथोक्ताध्यवसानं निवर्तमानमबलातोऽशेषकर्मक्षयाध्यवसायनिवर्तकं कारणं वा (भवद्) भवेत् व्यापकं वा ? अन्यस्य निवृत्तावपि अपरनिवृत्तेरवश्यंभावाभावात् अन्यथाऽश्वनिवृत्तावपि गवादेर्नियमेन निवृत्तिप्रसक्तेः। आह च न्यायवादी (प्रमाणवार्त्तिके ३-२३)
तस्मात्तन्मात्रसम्बन्धः स्वभावो भावमेव वा। निवर्तयेत् कारणं वा कार्यमव्यभिचारतः।। इति ।
तत्र न तावत् कारणं यथोक्ताध्यवसानमशेषकर्मक्षयाध्यवसानस्य येन तन्निवृत्त्या तस्यापि निवृत्तिः स्यात् । कारणत्वे वा यत्राशेषकर्मक्षयाध्यवसानं योगिनि सम्भवति तत्राधःसप्तमनरकपृथिवीप्राप्त्यवंध्यकारणस्य बीजभूताध्यवसानसद्भावात् कार्यस्य कारणाव्यभिचारित्वात् तस्य नरकप्राप्तिसद्भाव इति किसी भी दृष्ट या इष्ट वस्तु के बारे में सर्वज्ञागम बाधित नहीं देखा जाता। ऐसे आप्तपुरुष भाषित आगम के किसी एक अंश को प्रमाण मानना और अन्य अंश को अप्रमाण करना यह बुद्धिमानों के लिये उचित नहीं है।
* कर्मक्षयसाधकाध्यवसाय साधक अनुमान की सदोषता * अब दिगम्बर नया अनुमान प्रस्तुत करता है - विवादास्पद स्त्री (जिस की मुक्ति के बारे में विवाद चल रहा है ऐसी स्त्री) सकलकर्मों के क्षय-सम्पादक अध्यवसाय से शून्य होती है, क्योंकि उस में नीचे सातवीं नरक में ले चले ऐसे परिपूर्ण कारणभूत कर्मों का जनक अध्यवसाय नहीं होता। यहाँ व्यतिरेकव्याप्तिसहित यह उदाहरण है कि जो सकलकर्मक्षयकारक अध्यवसाय से शून्य नहीं होता वही नीचे सातवी नरक में ले चले ऐसे परिपूर्णकारणभूत कर्मों के बीजभूत अध्यवसाय से शून्य नहीं होता। उदा० जैसे कोई प्रसन्नचन्द्रराजर्षि जैसा उभयमान्य पुरुष जो कि सकलकर्मक्षयकारकअध्यवसाय से शून्य नहीं थे तो सातवी नरक प्रयोजककर्मजनकअध्यवसाय से विकल भी नहीं थे। इस प्रकार यहाँ वैधर्म्यदृष्टान्त प्रस्तुत है। ___यथार्थवादी कहते हैं कि दिगम्बर का यह अनुमान गलत है। कारण, इस प्रयोग में भी साध्य-साधन के बीच व्याप्तिरूप प्रतिबन्ध न होने से, उक्त हेतु से भी स्त्री में मुक्ति का निषेध सिद्ध नहीं हो सकता। ____ समीक्षा :- सकलकर्मक्षयकारक अध्यवसाय को अपनी निवृत्ति के द्वारा निवृत्त करनेवाला सातवींनरकप्रयोजककर्मजनकअध्यवसाय पूर्वोक्त अध्यवसाय का कारण है या व्यापक है ? जो कारण या व्यापक होता है वही अपनी निवृत्ति के द्वारा अपने कार्य या व्याप्य का निवर्त्तक हो सकता है, दूसरे किसी की निवृत्ति में अन्य की निवृत्ति अवश्य हो ऐसा कभी नहीं होता। अन्यथा अश्व, गो का कारण या व्यापक न होने पर भी स्वनिवृत्ति के द्वारा गो का निवर्त्तक हो बैठने का अनिष्ट होगा। न्यायवादी धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्त्तिक में कहा है कि - ‘(अदर्शनमात्र से व्यतिरेकसिद्धि नहीं होती) अत एव तन्मात्र यानी साधन से सम्बद्ध (व्यापकीभूत) वृक्षात्मक स्वभाव ही निवृत्त होता हुआ अपने व्याप्यभूत (सीसम) भाव का निवर्त्तन करता है। अथवा कारण अपनी निवृत्ति के द्वारा कार्य का निवर्त्तन करता है।' इस कथन से यही सिद्ध होता है कि निवर्त्तकभाव निवर्त्यभाव का कारण अथवा स्वभावरूप में व्यापक होना चाहिये, अन्यथा वह स्व की निवृत्ति के द्वारा अन्य का निवर्त्तक नहीं बन सकता।
* सप्तमनरकप्रापकअध्यवसाय न कारण है. न व्यापक * अधः सप्तमनरकगमनप्रयोजक कर्मजनक अध्यवसाय मुक्तिसाधक सकलकर्मक्षयकारक अध्यवसाय का कारण है या व्यापक ? इन दो में से एक हो तब तो वह अपनी निवृत्ति से मुक्तिअध्यवसाय का निवर्त्तक कहा जा सकता है। यदि उसे कारण माना जाय तो फलित यह होगा कि जिस योगि-आत्मा में सकलकर्मक्षय का
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