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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् सकलसावद्ययोगनिवृत्तिरूपा चित्तपरिणतिः स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धा स्वात्मनि, अन्यैरनुमानादवसीयते; ननु सा स्त्रियां तथैव किं नावसीयते येन तत्र तस्याः स्वाग्रहावेशवशादभावः प्रतिपाद्यते ? ! ३७४ अथ तासां भगवता नैर्ग्रन्थ्यस्याऽनभिधानाद् न तत्प्राप्तिः । असदेतत्, तासां तस्य भगवता 'णो कप्पइ णिग्गंथस्स णिग्गंथीए वा अभिन्नतालपलम्बे पडिगाहित्तए' (बृहत्कल्प ० उ०१ सू० १) इत्याद्यागमेन बहुशः प्रतिपादनात्, अयोग्यायाश्च प्रव्रज्याप्रतिपत्तिप्रतिषेधस्य 'अट्ठारस पुरिसेसुं वीसं इत्थीसु' ( ) इत्याद्यागमेन विधानाच्च । विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञापरत्वाच्च न तासां भगवत्प्रतिपादितनैर्ग्रन्थ्यनिमित्ता ऽविकलचारित्रप्राप्त्यनुपपत्तिः । अथ तथाभूतचारित्रवत्त्वेऽपि न तासां तद्भाक्त्वमिति साध्यार्थः तथाप्यनुमानबाधितत्वं पक्षस्य दोषः । तथाहि - यदविकलकारणं तदवश्यमुत्पत्तिमत् यथाऽन्त्यावस्थाभव्यों की मुक्ति होगी। शास्त्रवचन है जिस का भावार्थ यह है कि 'अनंत ऐसे भी भव्य हैं जो सिद्धिमार्ग को प्राप्त नहीं कर पायेंगे।' इस वचनप्रमाण से मान सकते हैं कि सभी भव्य स्त्रियों की मुक्ति असम्भव है । यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त हो चुका हो ऐसी स्त्रियों के लिये भी मुक्ति का निषेध अभिप्रेत हो तो यहाँ भी सिद्धसाधन (आयासमात्र) है। कारण, सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद खो बैठनेवाली किसी भी मिथ्यात्वी स्त्री की मुक्ति हमारे मत में भी नहीं होती । यदि सम्यग्दर्शन का त्याग न करने वाली स्त्रीयों की मुक्ति का निषेध अभिप्रेत हो तो यह भी हमें मान्य होने से साधनप्रयास निरर्थक है क्योंकि सम्यग्दर्शन होने पर भी जिन्होंने अखंड चारित्र को प्राप्त नहीं किया उन स्त्रियों की मुक्ति न होना, हमें भी मान्य है । अब यदि स्त्रियों को सर्वथा अखंडचारित्रप्राप्ति का ही दिगम्बर की ओर से निषेध कर दिया जाय तो यहाँ प्रमाणप्रश्न खडा होगा । किस प्रमाण के आधार पर वे स्त्री को संयमप्राप्ति का निषेध करते हैं ? यदि 'स्त्रीत्व' हेतु से स्त्रीयों में संयम का निषेध किया जाय तो 'पुरुषत्व' हेतु से पुरुष को भी संयम का निषेध किया जा सकेगा । यदि दिगम्बर कहता है कि 'पुरुषों को अपनी आत्मा में स्वकीय प्रत्यक्ष संवेदन से सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिगर्भित चित्तपरिणाम अनुभवसिद्ध होता है, एवं दूसरे लोगों को सद्धेतु से दूसरे में सर्वविरतिपरिणाम का अनुमान होता है' तो यहाँ पक्षपात को छोड कर यह भी क्यों नहीं कहते कि स्त्रियों को भी स्व- आत्मा में सर्वविरतिपरिणाम स्वसंवेदनसिद्ध है और सद्धेतु के द्वारा दूसरे लोग उन में उस का अनुमान कर सकते हैं। ऐसा कहने के बदले दिगम्बर लोग अपने आग्रह के वश हो कर स्त्रियों में सर्वविरति के अभाव की घोषणा क्यों कर देते हैं ?! * महिलाओं में निर्ग्रन्थता का सद्भाव आगमसिद्ध यदि भगवान ने महिलाओं में निर्ग्रन्थता की सत्ता का निरूपण नहीं किया इसलिये स्त्रियों में निर्ग्रथता की सत्ता न होने का सिद्ध होता है ऐसा कहा जाय तो वह गलत है क्योंकि भगवान ने बृहत्कल्पसूत्र आदि आगम में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी दोनों को अखंड तालप्रलम्ब ( फल-सब्जी आदि ) ग्रहण करने का स्पष्ट निषेध किया है। यहाँ निर्ग्रन्थी शब्द से ही महिला में निर्ग्रन्थता का प्रतिपादन सिद्ध हो जाता है । तथा, १८ प्रकार के पुरुषों को एवं २० प्रकार की महिलाओं को चारित्रग्रहण के लिये अयोग्य घोषित किया है। और उन्हें चारित्र के स्वीकार का निषेध किया है। उसी आगम से यह फलित हो जाता है कि शेष प्रकार वाले स्त्री-पुरुष प्रव्राजन के योग्य है । कारण, व्यक्तिविशेष के लिये किया गया निषेध, तदितर शेष व्यक्तियों के लिये विधानफलक होता है, जैसे कि कहा जाय कि 'दिगम्बर का मोक्ष नहीं होता' तो उस से यह फलित होता है कि ‘दिगम्बर से भिन्न श्वेताम्बरआदि का मोक्ष होता है ।' तात्पर्य यह है कि बृहत्कल्पसूत्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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