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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् वस्त्रवानपि मुनिः अचेलपरीषहजेता किं न स्यात् ? 'णगिणस्स वा वि' (दशवै० ६-६५) इत्याद्यप्यागमः तथाविधवस्त्रवतोऽपि नग्नत्वमाह उक्तन्यायात्, दृश्यन्ते हि लोके तथाविधवस्त्रवन्तोऽपि 'नग्ना वयम्' इत्यात्मानं व्यपदिशन्तः।
'जे भिक्खू कसिणं वत्थं पडिगाहेइ' ( ) इत्यादेः प्रमाणमूल्याधिकवस्त्रग्रहणप्रतिषेधविधायिनः योग्याऽयोग्य-तद्ग्रहण-प्रतिषेधविधायिनश्चागमस्य "पिण्डं सेजं च वत्थं च चउत्थं पायमेव य। अकप्पियं ण इच्छेज्जा पडिगाहेज कप्पियं ।।"
(दशवै० ६-४८) - इत्यादेादशाङ्ग्यन्तर्गतस्यानेकस्य सद्भावान गौणार्थवृत्तेरुत्तमसंहननपुरुषविशेषविषयप्रतिनियतावस्थागोचरवस्त्रमोक्षप्रतिपादकतया मुख्यवृत्तेर्वाऽऽगमलेशस्य श्रवणमात्रात् भगवत्प्रतिपादितं यतीनां वस्त्रादिग्रहणं प्रतिक्षेप्तुं युक्तम् । तत्प्रतिक्षेपकारिणो बृहस्पतिमतानुसारिण इव मिथ्यादृष्टित्वप्रसक्तेः। अतो वस्त्राद्युपकरणसमन्विताः श्वेतभिक्षवो निर्वाणफलहेतुसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रयुक्ताः अविकलार्हत्प्रणीतमहाव्रतसम्पन्नत्वात्, गणधरादिवत् । तदेवं धर्मोपकरणयुक्तस्य महाव्रतधारिणो निर्ग्रन्थत्वात् आर्यिकाणामपि मुक्तिप्राप्त्यविरोधः।
दिगम्बर ने जो कहा है कि – ‘स्थित कल्प में मुनियों को आचेलक्य का (चेलाभाव यानी वस्त्राभाव का) एवं परीषहों में अचेल परीषह का उपदेश होने से वस्त्रग्रहण का निषेध हो जाता है' - यह भी अपेक्षा को विना समझे कह दिया है। कारण, आचेलक्य का उपदेश अपरिपर्ण-शक्लवर्ण जीर्णशीर्ण वस्त्रग्रहण की अपेक्षा से किया गया है, तथा कभी पुराना वस्त्र चोरी हो गया, अब वस्त्र न होने पर भी साधु कभी अनेषणीय (अकल्प्य रेशमी आदि) वस्त्रों का ग्रहण नहीं करता, इस अपेक्षा से ही आचेलक्य का उपदेश है न कि सर्वथा नग्नता की अपेक्षा से । यदि सर्वथा नग्नता की अपेक्षा से आचेलक्य का उपदेश समझ बैठेंगे तो फिर वस्त्रादिग्रहण के उपदेशक अनेकविध आगमवचन उक्त आचेलक्यविधान से बाधित हो जाने से अप्रामाणिक हो जाने की बड़ी विपदा सिर उठायेगी।
तथा, अचेल परिषह का वास्तव रहस्य यह है कि जैसे साधु अनेषणीय आहार का त्याग कर के एषणीय आहार-भोजन करने पर भी क्षुधा-परिषह का विजेता कहा जाता है, क्योंकि क्षुधा होने पर भी वह आकुल हो कर अनेषणीय आहार का ग्रहण नहीं करता – ऐसे ही मुनि वस्त्रैषणा से अपरिशुद्ध वस्त्र का ग्रहण नहीं करता किन्तु एषणीय प्रमाणयुक्त जीर्ण एवं शुक्लमात्र ही वस्त्र का ग्रहण करता है - तो उसे भी अचेलपरीषह का विजेता क्यों न माना जाय ?
दिगम्बर ने जो कहा था कि - ‘णगिणस्स वा वि मुण्डस्स दीहरोमनहंसिणो। मेहणा उवसंतस्स किं विभूसाइ कारिअं ।। नग्न और मुण्ड एवं दीर्घ केश-नखधारी, मैथुन से विरत मुनि को विषूभा का क्या प्रयोजन ?' - इस प्रकार के आगमों में कई बार भगवान ने वस्त्रादित्याग का उपदेश किया है।' - यह भी भ्रमणा है, क्योंकि उक्त युक्तियों के अनुसार नग्नतासूचक आगमवचनों में भी जीर्ण-शीर्ण-शुक्लवस्त्र के लिये ही 'नग्नता' शब्दप्रयोग किया है न कि सर्वथा वस्त्रत्याग की अपेक्षा से । लोक-व्यवहार में भी फटे-तूटे मैले कपड़े पहनने वाले अपने लिये बार बार कहते हैं कि हम तो (गरीबी के मारे) नंगे फिरते हैं। अतः आचेलक्यादि सूत्रों के आधार पर भी दिगम्बर मत का अभिप्राय नहीं होता।
___* सूत्र विधानों का परमार्थ * दिगम्बर प्रवक्ता ‘णगिणस्स वा वि०' इत्यादि सूत्रलेश के श्रवणमात्र से उस के अर्थ को विना समझे ही गलत ढंग से वस्त्रादिग्रहण का प्रतिक्षेप कर बैठता है वह न्याययुक्त नहीं है। कारण, 'जे भिक्खू०' इत्यादि सूत्र
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