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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६५ गस्यापि स्वतःसिद्धत्वात् उत्तीर्णमहार्णवपुरुषयानपरित्यागस्येव प्राक् तु तत्परित्यागो महार्णवयानमध्यासीनयानपरित्यागवद् अपायहेतुरेव । तेन 'श्वेतभिक्षवो महाव्रतपरिणामवन्तो न भवन्ति' इत्यादिप्रयोगे 'परिग्रहाग्रहयोगित्वात्' इत्यस्य हेतोरसिद्धतैव । यदपि 'न च भगवद्भिर्वस्त्रग्रहणं यतीनामुपदिष्टम्' तदपि अनधीतागमस्याभिधानम् आचाराद्यङ्गेषु वस्त्रपाषणाध्ययनादिषु तद्ग्रहणस्य यतीनां विस्तरतो भगवता प्रतिपादनात् । तथा चौधिकोपधिर्जिनकल्पिकानां द्वादशविधः स्थविरकल्पिकानां चतुर्दशविधः निर्ग्रन्थीनां पञ्चविंशतिविधो भगवद्भिरनुज्ञातः 'जिणा बारसरूवाणि (ओ?) थेरा चोद्दसरूविणो। अज्जाणं पणवीसं तु अओ उड्डमुवग्गहो' । __ - (पञ्चवस्तु० ७७१) इत्याद्यर्हदुक्तागमप्रामाण्यात् । यदपि स्थितकल्पे आचेलक्यम् परीषहेषु वाऽचेलत्वं यतेरुपदिष्टम् तदपि शुक्लाऽकृत्स्नवस्त्रग्रहणापेक्षया वस्त्राभावेऽपि अनेषणीयतदग्रहणापेक्षया च, अन्यथा वस्त्रादिग्रहणाभिधायकस्यानेकस्यागमस्यैतदागमबाधितत्वेनाऽप्रामाण्यप्रसक्तेः। यथा च भुञानोप्येषणीयमाहारं क्षुत्परीषहजेता यतिः अनेषणीयाहारपरित्यागात्, तथा वस्त्रैषणाऽपरिशुद्धवस्त्राऽग्रहणात् शुक्लजीर्णहोगा। यदि विधिपूर्वक उस के त्याग का आग्रह किया जाय तो यही ज्ञानादि की आराधना ही उस के सर्वदा त्याग का बेजोड विधि है। - अहो ! तब तो वस्त्रत्याग के लिये भी समान बात है। वस्त्रादि का नग्नता आदि रूप अविधिपूर्वक त्याग करने से भवोभव तक भटकना पडे, यदि विधिपूर्वक वस्त्रादित्याग का आग्रह हो तो यह ज्ञानादि की आराधना ही उस के सर्वदा त्याग की उत्तम विधि है। यदि सर्वथा नग्न हो कर वस्त्रत्याग (अविधिपूर्वक) किया जाय तो वस्त्रग्रहण के अभाव में उत्कृष्टफलसम्पादक स्थिर-दृढ प्रव्रज्या परिणाम ही जाग्रत् नहीं होगा। जब प्रकृष्ट प्रव्रज्या परिणाम और उस का उत्कृष्ट फल केवलज्ञानादि मोक्षपर्यन्त प्राप्त हो जायेगा तब शरीरत्याग की तरह वस्त्रादित्याग भी अनायास ही होने वाला है - जैसे, महासागर को पार कर जानेवाले मुसाफिर अपने आप ही जहाज का त्याग कर देता है। यदि केवलज्ञानादि लब्धि प्राप्त करने के पहले ही वस्त्रादि का त्याग कर दिया जाय तो बहुत ही नुकसान हो सकता है जैसे मझधार में अगर समुद्र में नौका का त्याग कर दिया जाय तो आदमी कभी समुद्र पार नहीं उतरेगा। सारांश, 'श्वेताम्बर भिक्षु महाव्रत परिणामवाले नहीं होते क्योंकि परिग्रह के आग्रही हैं' ऐसे दिगम्बर अनुमानप्रयोग में ‘परिग्रह के आग्रही' यह हेतु असिद्ध घोषित हो जाता है। * आगमों में यति को वस्त्रादिग्रहण का स्पष्ट विधान * दिगम्बर ने जो पहले कहा है - भगवान ने यतियों को वस्त्रग्रहण का उपदेश नहीं किया - यह भी आगम के अनभिज्ञ पुरुष का विधान है, क्योंकि आचारंग आदि आगमो में वस्त्रैषणा-पात्रैषणा आदि अध्ययनों में भगवान ने यतियों को स्पष्ट ही विस्तार से वस्त्रादिग्रहण का विधान किया हुआ है। भगवान ने जिनकल्पी मुनियों के लिये बारहभेदी, स्थविरकल्पी मुनियों के लिये चतुर्दशभेदी एवं साध्वीयों के लिये पञ्चवीशभेदी ओघ (सामान्य) उपधि (उपकरणवृंद) के ग्रहण की अनुज्ञा दी है। जैसे पञ्चवस्तु आदि शास्त्रों में भी कहा है - 'जिनकल्पियों के लिये बारह प्रकार की, स्थविरकल्पियों के लिये चउदह प्रकार की और साध्वीयों के लिये पञ्चवीश प्रकार की ओघ उपधि होती है, उस से ज्यादा औपग्रहिक होती है।' भगवान के भाखे हुए इस आगमवचन के प्रमाण से वस्त्रादिग्रहण सिद्ध होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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