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________________ ३६९ पञ्चमः खण्डः - का० ६५ सम्भविनीति दृष्टान्तोप्यसंगत एव, सर्वस्य विशिष्टफलारम्भिणस्तदुपकरणरहितस्य तत्फलाऽप्रसाधकत्वात् । तथाहि – यो यत्रोपायविकलो नासौ तत् साधयति यथा कृष्याधुपायविकलस्तत्फलम् अशेषकर्मविगमस्वभावमुक्तिफलवस्त्रादिधर्मोपकरणोपायविकलश्च मुनिर्भवद्भिरभ्युपगम्यत इति। न च क्षायिकज्ञानदर्शनचारित्राण्येव तदुपाय इति वक्तव्यम् 'वस्त्रादिधर्मोपकरणविकलस्य क्षायिकज्ञानादेरेवाऽसम्भवात्' इत्युक्तत्वात्। 'यो यद्विनेयो'... इत्यादिकोऽपि प्रयोगोऽनुपपन्नः, 'सर्वथा परित्यक्तवस्त्रतीर्थकृद्विनेयत्वात्' इत्यस्य हेतोरसिद्धत्वात्, भगवत एव परित्यक्तवस्त्रत्वानुपपत्तेः – 'सव्वे वि एगदूसेण णिग्गया जिणवरा' (आ. नि० गाथा २२७) इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । न चास्यान्यार्थत्वम् आचाराधङ्गेषु तैस्तैः सूत्रैर्भगवत्येकवस्त्रग्रहणस्य श्रामण्यप्रतिपत्तिसमये प्रतिपादितत्वात् । न चैवं तदा सर्ववस्त्रपरित्यागावेदकस्तत्र कश्चिदागमः श्रूयते । योऽपि 'वोसट्ठचत्तदेहो विहरइ गामाणुगामं तु' ( ) इत्यागमः सोऽपि न श्रामण्यप्रतिपत्तिसमयभाविभगवनग्नत्वाऽवेदकः, किन्तु तदुत्तरकालं रागादिविप्रमुक्तत्वं भगवत्यावेदके लिये वे भी उपयोगी हैं। तदुपरांत, दिगम्बरने जो उक्त अनुमानप्रयोग में ग्रन्थधारक मुसाफिर का उदाहरण दिया है वह भी गलत है – क्योंकि पाथेयादि उपकरणशून्य मुसाफिर कभी इष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकता। इतना ही नहीं - यह भी समझने लायक है कि विशिष्ट फल के लिये उद्यम करनेवाले यदि उस के लिये उपयोगी उपकरण का आदर नहीं करेंगे तो कभी भी अपने विशिष्ट फल की प्राप्ति नहीं कर पायेंगे। ऐसा अनुमानप्रयोग देख लिजिए - जो जिस प्रवृत्ति में उपायशून्य होता है वह उस के फल को नहीं प्राप्त कर सकता। उदा० कृषि कर्म के लिये जरूरी औजार हल आदि से शून्य पुरुष कृषि के फल को नहीं प्राप्त कर सकता। आप भी यही मानते हैं कि यति वस्त्रादिशून्य ही होता है जो (वस्त्रादि) कि धर्मोपकरणरूप होने से सकलकर्मविनाशात्मक मुक्तिस्वरूप फल का उपायभूत है। यदि कहें कि – 'वस्त्रादि नहीं किन्तु क्षायिक ज्ञान-दर्शन-चारित्र ही मुक्ति के उपाय हैं' तो ऐसा कहने की जरूर नहीं है क्योंकि वस्त्रादि धर्मोपकरण से शून्य साधक को क्षायिक ज्ञानादि की प्राप्ति ही असम्भव है। पहले यह कहा जा चुका है। * शिष्य को गुरुधारितलिंग के ग्रहण का उपदेश व्यर्थ * दिगम्बरने जो तीसरा अनुमान बताया है - 'जो जिस का शिष्य हो वह उसके लिंग का अनुसरण करता है' यह तीसरा प्रयोग भी मिथ्या है। कारण, उस में जो यह हेतु कहा गया है 'सर्वथा वस्त्र का त्याग करनेवाले तीर्थंकर के शिष्य भिक्षु होते हैं' – यह हेतु असिद्धिदोष से दूषित है, क्योंकि 'भगवान तीर्थंकर ने वस्त्र का सर्वथा त्याग किया था यह विधान शास्त्रसंगत नहीं है। प्रमाणभूत आवश्यकनियुक्ति आगम में तो यह कहा है कि - सभी तीर्थंकरोने एक देवदूष्य (दैवी वस्त्र) ग्रहण कर के निष्क्रमण किया था।' यह प्रामाणिक आगमवचन दिगम्बर के हेतु को 'असिद्ध' घोषित करता है। 'इस आगमवचन का अर्थ तो दूसरा ही कुछ है, वस्त्रग्रहण अर्थ नहीं है', ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आचारांग आदि आगमों के उन सूत्रों में दीक्षा अंगीकार करते समय भगवान में एकवस्त्र ग्रहण का स्पष्ट निर्देश किया गया है। उस से विपरीत, यानी दीक्षाग्रहण समय में सर्वथा वस्त्रपरित्याग सूचित करनेवाला एक भी आगमवचन दिगम्बर को भी उपलब्ध नहीं है। दिगम्बर :- ऐसा नहीं है, 'वोसट्टचत्तदेहो विहरइ गामाणुगामं तु' ( ) अर्थात् देह का व्युत्सर्ग एवं त्याग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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