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________________ ३६८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ___'सो य तवो कायव्वो जेण मणो मंगुलं न चिंतेई' (पञ्चव० गाथा २१४) इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । स्तुतिकृताऽप्युक्तम् – 'बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरध्वमाध्यात्मिकस्य तपस उपबृंहणार्थम्' (स्वयंभूस्तो० ८३) इति । तन्न वस्त्र-पात्रादिविकलस्येदानींतनयतेः सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानं सम्भवतीति कथं न तस्य धर्मोपकरणत्वम् ? __ एवं 'यः स्वीकृतग्रन्थः'... इत्यादिप्रयोगेऽपि वस्त्रादिधर्मोपकरणस्याऽग्रन्थत्वप्रतिपादनात् ‘स्वीकृतग्रन्थश्च मोक्षाध्वनि संचरन् वस्त्राद्युपकरणवान्' इति हेतुरसिद्धः। न च तथाविधवस्त्राद्युपकरणधारिणां चौरादिभ्य उपद्रवः संभवति, तद्वस्त्रादेरशोभनत्वाऽल्पमूल्यत्वाभ्यां चौराऽग्राह्यत्वात् । अथाधमचौरास्तथाभूतमपि गृह्णन्ति इति तदग्राह्यत्वं तस्याऽसिद्धम् । नन्वेवं पुस्तकाद्यपि मोक्षाध्वसंचारिणा न ग्राह्यं स्यात् तत्राप्यस्य दोषस्य समानत्वात् । अथ तदपि भगवता प्रतिषिद्धम् – न, तत्प्रतिषिद्धपुस्तकादिग्राहिणामिदानींतनर्षीणां तदाज्ञाविलोपकारित्वेनाऽयतित्वप्रसक्तेः । ज्ञानाद्युपष्टम्भहेतुत्वेन तद्ग्रहणे पात्रादावपि तत एव ग्रहणप्रसक्तिः। न च पाथेयाधुपकरणरहितस्याध्वगस्याप्यभीष्टस्थानप्राप्तिः का पोषक ही बाह्यतप उपादेय होता है, अन्यथा वह तपरूप ही नहीं हो सकता। शास्त्रकार महर्षि भी कहते हैं कि – 'वही तप उपादेय है जिस के होने पर मन से अशुभ चिन्तन नहीं होता।' इस आगम प्रमाण से उक्त तथ्य का समर्थन होता है। दिगम्बरमान्य स्तुतिकार (स्वयंभूस्तोत्रकर्त्ता) ने भी कहा है कि 'आध्यात्मिक (अभ्यन्तर) तप की पुष्टि के लिये परम दुष्कर बाह्य तप का आचरण करना चाहिये ।' सारांश, वस्त्र-पात्रादि के विरह में वर्तमानकालीन साधु का परिपूर्ण सर्वसावद्ययोग का पचक्खाण सम्भव नहीं है, तो उस में सहायक होने वाले वस्त्र-पात्रादि को धर्मोपकरण क्यों न माना जाय ?! दिगम्बर ने दूसरा अनुमानप्रयोग ऐसा कहा था कि 'ग्रन्थ रख कर पथ-संचरण करने वाला इष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकता'.. इत्यादि। किन्तु अभी तो यह सिद्ध किया जा चुका है कि वस्त्रादि तो धर्मोपकरण है न कि 'ग्रन्थ' । अतः मुक्तिपथ-संचरण करनेवाला श्वेत भिक्षु वस्त्रादि धर्मोपकरणवाला होने पर भी ग्रन्थयुक्त न होने से, उस में उक्त प्रयोगवाला हेतु ही असिद्ध है। दूसरी बात यह है कि साधु जो वस्त्र रखते हैं वे वस्त्र जीर्ण-शीर्ण शोभाहीन एवं अल्पमूल्य के होते हैं, चौरादि भी उन को पसंद नहीं करे ऐसे होते हैं। अतः ऐसे वस्त्र धारण करने वाले साधु महात्मा को चोर आदि के उपद्रव का सम्भव नहीं है। जो अधमवत्तिवाले चोर होते हैं वे तो शोभाहीन अल्पमल्य वस्त्रों की भी चोरी करते हैं. इस लिये 'वैसे वस्त्रों को चोर पसंद नहीं करते' यह कथन असिद्ध है। यथार्थवादी :- अरे भैया ! तब तो मुक्तिमार्ग के पथिकों के लिये पुस्तकादि भी अग्राह्य मानना होगा, क्योंकि अधम चोर तो पुस्तकादि की भी चोरी करते हैं। वस्त्रादि में जो दोष है वही पुस्तकादि में भी है। दिगम्बर :- इसी लीए भगवानने तो पुस्तकादि का भी प्रतिषेध किया है। यथार्थवादी :- आप की यह बात गलत है क्योंकि पुस्तकादि को भगवत्प्रतिषिद्ध मानने पर जिन दिगम्बर यतियों ने वर्तमानकाल में पुस्तकादि का परिग्रह किया है उन को असाधु मानना होगा क्योंकि उन्होंने पुस्तकअग्रहण संबंधी भगवदाज्ञा का विलोप किया है। दिगम्बर :- हमने परिग्रह के रूप में नहीं किन्तु ज्ञानादिपुष्टिकारक होने से पुस्तकादि का ग्रहण किया है, अतः असाधुता अथवा भगवदाज्ञाभंग का दोष नहीं होगा। यर्थाथवादी :- अब तो वस्त्र-पात्रादि का ग्रहण भी आप को प्रसक्त होगा, क्योंकि चारित्र की पुष्टि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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