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पञ्चमः खण्डः - का० ६५
३६७ न पूर्वोक्तो दोषः; तथाऽनिरीक्षणात्, तदनुपलब्धावपि तदभावनिश्चयाऽयोगात् । न च यत्ननिरीक्षणानुपलब्धा व्यापाद्यमाना अपि सत्त्वा न व्रतातिचारकारिणः; विषचूर्णादेरनुपलब्धभुक्तस्य प्राणनाशहेतुत्वोपलब्धेः । न च चतुर्थरसादेः प्रासुकोदकस्योपभोगादयमदोषः । तत्रापि सत्त्वसंसक्तिसंभवात् - करप्रक्षिप्ते तस्मिन् तन्निरीक्षणे पानोज्झनयोस्तद्व्यापत्तिदोषस्याऽपरिहार्यत्वात् । पात्रादिग्रहणे तु तत्प्रत्युपेक्षणस्य तद्रक्षणस्य च सुकरत्वात् न व्रतातिचारदोषापत्तिः। न च त्रिवारोवृत्तोष्णोदकस्यैव परिभोगाद् अयमदोषः, तथाभूतस्य प्रतिकालं तत्कालोपस्थायिनः तस्याऽप्राप्तेः, प्राप्तावपि तस्य तृडपनोदाऽक्षमत्वात् तद्युक्तस्य चानुत्तमसंहननस्येदानींतनयतेरा-ध्यानोपपत्तेः तस्य च दुर्गतिनिबन्धनत्वात् । न च तृडादे१खस्य तपोरूपत्वेनाश्रयणीयत्वात् अयमदोषः अनशनादेर्बाह्यतपस आन्तरतपउपचयहेतुत्वेनाश्रीयमाणत्वात्, अन्यादृग्भूतस्य चाऽतपस्त्वात् - करेगा, अथ- पूर्वोक्त दोष को अवकाश नहीं रहेगा – तो इस में तथ्य नहीं है क्योंकि (ऐसे कोई दिगम्बर यति प्रायः निपुण निरीक्षण करता नहीं है, हाथ में ले कर तुरन्त ही मुँह में डाल देते हैं अथवा) वैसे ऊपरि सतह पर देख लेने मात्र से जीव-जन्तु का उपलम्भ (निरीक्षण) न होने पर भी उस के सर्वथा अभाव का निश्चय छद्मस्थ पुरुष नहीं कर सकता। ___यदि ऐसा कहा जाय – प्रयत्नपूर्वक निरीक्षण करने पर यदि जीव-जन्तु उपलब्ध न हुए तब उस के उपभोग से यदि किसी सूक्ष्म जीव-जन्तु का प्राण-विनाश हो जाय, फिर भी उस से अहिंसाव्रत में कोई अतिचार (=दोष) नहीं होता - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि भोजन में विषचूर्ण का ज्ञान न होने पर भी अगर विषैला भोजन कर लिया जाय तो उस अज्ञात विषभक्षण से जैसे स्वप्राण-विनाश होता है वैसे ही अज्ञात जीवहिंसा से व्रतभंग भी हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि – 'चतुर्थरसादि यानी खट्टा या मधुर एवं अचित्त जल का ही उपभोग किया जाय तो जीवहिंसा का दोष नहीं रहेगा - क्योंकि खट्टे जलमें जीवों का सद्भाव नहीं होता' – तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि वैसे जल में भी जीवों की संसक्ति (=प्रादुर्भाव) होने की सम्भावना बहुत है। दिगम्बर यति ऐसे पानीको हाथ में लेगा और बाद में अगर तथाविध जीव-जन्तु दिखाई देगा तो क्या करेंगे - अगर पी जायेंगे तो भी विराधना होगी, अगर वहाँ ही छोड देंगे तो भी विराधना दोष का निवारण अशक्य है। हाँ, पात्रादि रखा हो तो एक पात्र से जीव-जन्तु को दूसरे पात्र में संक्रान्त कर के उस की रक्षा अच्छी तरह से हो सकती है। शुभ फल यह होगा कि व्रत में कोई अतिचार दोष का दाग नहीं लगेगा।
* बाह्यतप का प्रयोजन अभ्यन्तरतपपुष्टि * द कहा जाय - तीन बार उबाले हए उष्णजल का पान करने पर यह दोष भी नहीं होगा - तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जब दिगम्बर यति वहाँ पहुँचे तभी सर्वदा घर-घर में वैसा गरम-गरम ही पानी मिल जाय ऐसा सम्भव नहीं है। कदाचित् कहीं एक-दो बार वैसा गरम-गरम पानी मिल जाय तो भी उस से प्यास नहीं बुझ सकती। नतीजा यह होगा कि उत्तम शारीरिक गठन के विरह में वर्तमानकालीन यति को प्यास नहीं बुझने से बैचेनी और आर्त्तध्यान प्रसक्त होगा जो कि दुर्गति का मूल है। यदि यह कहा जाय – तृषा आदि का दुःख (कष्ट) तो तपोमय है अतः स्वागतपात्र ही है, कोई दोष नहीं है अगर प्यास न बुझे । - तो यह ठीक नहीं है, आर्त्तध्यान न होने पर कुछ हद तक वह तपोमय हो सकता है किन्तु प्यास न बुझने पर आर्त्तध्यान हो जाना बहु सम्भव है, तब वह तप रूप होवे तो भी क्या ? आखिर बाह्य अनशनादि तप तो अभ्यन्तरतप की पुष्टि के लिये होने चाहिये न कि आर्त्तध्यानप्रेरक । अभ्यन्तरतप
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