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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सूक्ष्मसत्त्वव्यापत्तिसद्भावे प्राणातिपातविरमणादिमहाव्रतधारणानुपपत्तेः तदर्थं तद्ग्रहणम् धर्मोपकरणत्वं च पिंछिकादेः अत एवोपपन्नम् – तर्हि अत एव पात्रस्यापि धर्मोपकरणत्वं तद्ग्रहणं चोपपन्नम् तदन्तरेणैकत्रैव भुजिक्रियां हस्त एव विदधतामारम्भदोषतः कर-चरणक्षालने च जलगताऽसंख्येयादिसत्त्वव्यापत्तितो महाव्रतधारणानुपपत्तेः । न च प्रतिगृहमोदनस्य भिक्षामात्रस्योपभोगाद् वस्त्रपूतोदकाङ्गीकरणाच्चायमदोषः, तथाभूतप्रवृत्तेर्युष्मास्वनुपलम्भात् प्रवृत्तावपि प्रवचनोपघातप्रसक्तेः तस्य चाऽबोधिबीजत्वात् - ‘छक्कायदयावंतो वि संजओ दुल्लहं कुणइ बोहिं आहार...' *( ) इत्याद्यागमप्रामाण्यात् । ___ न च गृहस्थवाससा पूतमप्युदकं निर्जन्तुकं सर्वं संपद्यते तज्जन्तूनां सूक्ष्मत्वात् वस्त्रस्य चाघनत्वात् गृहिणां तच्छोधनेऽतिशयप्रयत्नानुपपत्तेश्च । न च कर एव प्रत्युपेक्ष्य तत्सत्त्वानुपलब्धौ तदुपभोगाद् पूंजने-प्रमार्जने के लिये पिंछी आदि (धर्मोपकरण) का ग्रहण करना ही होगा और अहिंसाव्रतरक्षा में उपयोगी होने से 'पिंछी धर्मोपकरण है' यह भी संगत हो जायेगा” – तो इसी तरह पात्र (और वस्त्रादि) में भी धर्मोपकरणता सुसंगत हो जायेगी, क्योंकि उस के विना जीव-जन्तु अन्वेषण न होने से अहिंसाव्रत की सुरक्षा शक्य नहीं है। अहिंसाव्रत की सुरक्षा के लिये अत एव धर्मोपकरणस्वरूप पात्र का ग्रहण भी न्याययुक्त है। पात्र के विना स्वयं हाथ में ही आहार ग्रहण कर के भोजन करने पर एक ही घर से भोजन लेने से आरम्भ यानी हिंसा दोष का होना पूरा सम्भव है, प्रवाही या घन विकीर्ण पदार्थ भोजन के लिये हाथ में लेने पर, हाथ से वह नीचे गिरेगा, हाथ-पैर आदि अवयव जूठे होंगे, उस का प्रक्षालन करने के लिये गृहस्थ सचित्त जल का उपयोग करेगा तो अप्काय के असंख्य जीवों की विराधना होने से प्रथम महाव्रत का धारण शिथिल हो जायेगा। यदि ऐसा कहा जाय कि - "दिगम्बर यति हाथ में सिर्फ चावल की ही भिक्षा ग्रहण करेंगे अतः नीचे गिरने का सम्भव – दोष नहीं होगा। एवं कर-चरण प्रक्षालन के लिये वस्त्र से छाने हुए जल का ही उपयोग करने से अप्काय जीवों की विराधना भी नहीं होगी।' – तो यह प्रलापमात्र है क्योंकि दिगम्बर यति रोटी-बाटी सब भिक्षा में लेते है न कि सिर्फ चावल । एवं पानी का उपयोग भी वस्त्र से छाने विना ही करते हैं। कदाचित् सिर्फ चावलादि की भिक्षा का ग्रहण करते हो, फिर भी एक ही घर के द्वार पर खडे खडे असभ्य पद्धति से भोजन करने पर जैन शासन की बहुत ही निंदा-उपघात का बडा दोष प्रसक्त होता है। प्रवचन उपघात यह बोधिबीज का नाशक होता है। शास्त्रों में कहा है - _ 'आहार-निहार के विषय में लोगों को अत्यन्त जुगुप्सा पैदा करनेवाला साधु स्वयं बोधिप्राप्ति को दुर्लभ बना रहा है, चाहे वह कितना भी छ जीवनिकायों की रक्षा में उद्यमवंत हो।'
* पात्र के विना इस काल में विडम्बना * दिगम्बर ने जो गृहस्थ के द्वारा वस्त्र में छाने हुए पानी को ग्रहण करने का आलाप किया है वह भी सारहीन है, क्योंकि गृहस्थ पानी को वस्त्र से छान ले तो भी वह पूरा जन्तुरहित नहीं हो जाता, क्योंकि जलगत कुछ ऐसे सूक्ष्म जन्तु होते हैं जो वस्त्र से छानने पर भी जल से अलग नहीं होते क्योंकि वस्त्र इतना सघन नहीं होता कि उस के छिद्रों में से वे जन्तु आरपार निकल न सके। तथा गृहस्थों को जल छानने में इतनी सावधानी या कौशल भी नहीं होता। यदि कहा जाय कि – दिगम्बर यति हाथ में भोजन को ले कर उस का प्रत्युपेक्षण कर के जब उस में कोई जीव-जन्तु का उपलम्भ न हो तब उस का उपभोग . आहारे निहारे परस्स उंछ जणेमाणे ।। - इत्युत्तरार्द्धः ।
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