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पञ्चमः खण्डः - का० ६५
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युक्तम् न वस्त्रादेः तद्विपर्ययात् इति वाच्यम् अनभिष्वङ्गनिमित्तस्यैव तस्यापि धर्मोपकरणत्वाभ्युपगमात् अभिष्वङ्गनिबन्धनस्य शरीरादेरपि अधर्मोपकरणत्वात् । न च शरीरेऽपि अप्रतिबद्धानां विदितवेद्यानां साधूनां वस्त्रादिषु 'मम इदम्' इत्यभिनिवेशः। उक्तं च तत्त्वार्थसूत्रकृता वाचकमुख्येन -
___'यद्वत् तुरगः सत्स्वप्याभरणविभूषणेष्वनभिषक्तः।
तद्वद् उपग्रहवानपि न संगमुपयाति निर्ग्रन्थः ।।१४१ ।। (प्रशमरति का० १४१) अभ्युपगमनीयं चैतत् परेणाऽपि, अन्यथा शुक्लध्यानाग्निना कर्मेन्धनं भस्मसात् कुर्वतः परित्यक्ताऽशेषसंगस्य केनचित् तदुपसर्गकरणबुद्ध्या भक्त्या वा वस्त्राद्यावृतशरीरस्य ग्रन्थत्वात् परमयोगिनो मुक्तिसाधकत्वं न स्यात् । अथ यत् स्वयमादत्तं वस्त्रादि तदभिष्वंगनिमित्तत्वाद् न धर्मोपकरणम् । न, स्वयंगृहीतपिंछिकादिना व्यभिचारात् । अथ पिंछिकाद्यग्रहेऽप्रमार्जितासनाद्युपवेशनादिसम्भवतः ___ यदि यह कहा जाय – पीछी आदि जरूर धर्मोपकरणस्वरूप होते है क्योंकि वह रागजनक नहीं होते। वस्त्रादि में उलटा है, वस्त्रादि राग-जनक है अतः वह धर्मोपकरणरूप नहीं है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जो रागादि-जनक न हो वैसे वस्त्रादि को ही हम धर्मोपकरणस्वरूप मानते हैं, दूसरी ओर जिस को शरीरादि राग-जनक होते हैं उन के लिये शरीरादि भी अधर्म का ही उपकरण होता है, दिगम्बर यह क्यों नहीं मानता ? तत्त्वार्थसंवेदी साधुओं को तो शरीर में भी प्रतिबन्ध = ममत्वभाव नहीं होता, फलतः 'यह मेरा है' ऐसा ममत्वगर्भित अभिनिवेश वस्त्रादि में नहीं होता । व्याख्याकारने यहाँ तत्त्वार्थसूत्रकार वाचकमुख्य और प्रशमरतिग्रन्थकार एक होने का निर्देश करते हुए श्री उमास्वाती महाराज के प्रशमरतिग्रन्थ की एक कारिका (१४१) साक्षी के रूप में उद्धृत की है, जिस का भावार्थ यह है कि - ___आभरण और विभूषा आदि के होते हुए भी जैसे अश्व को उन आभरणादि का अभिष्वंग-अभिमान नहीं होता; वैसे ही वस्त्रादिउपग्रह (=संग्रह) कारक निग्रंथ भी उस में संगवान् (=आसक्त) नहीं होता ।।
* वस्त्रादि की धर्मोपकरणतासाधक युक्तिवृंद * वस्त्रादि धर्मोपकरण व्रतबाधक नहीं है इस तथ्य का स्वीकार प्रतिवादी को अवश्य करना होगा, अन्यथा यह मुसीबत होगी - कोई परमयोगी पुरुष शुक्लध्यान की आग में कर्म को इन्धन बना कर उस को भस्मसात् कर रहा है, समस्त संग का (वस्त्रादि का भी) उसने त्याग कर दिया है, उस को कष्ट देने की बुद्धि से किसी दुष्ट ने अथवा करुणा-भक्तिबुद्धि से किसी भक्त ने उस को ठंडी से ठिठुरते हुए देख कर शरीर पर वस्त्र लपेट दिया। अब वस्त्र तो ग्रन्थ हो गया, उस का निर्ग्रन्थपन चला जायेगा और उस बेचारे की मुक्ति वहाँ ही रुक जायेगी। यदि वस्त्रसंग मात्र से उस की मुक्ति नहीं रुकेगी तो मानना पडेगा कि वस्त्रसंग व्रतबाधक या मुक्तिबाधक नहीं है। ___ यदि कहा जाय - स्वयं ग्रहण किया हुआ वस्त्रादि ही राग-जनक होने से, वह धर्मोपकरणरूप नहीं होता। वहाँ उस योगीने स्वयं वस्त्रग्रहण नहीं किया, इसलिये उस की मुक्ति नहीं रुकेगी। - तो स्वयं पिंछीआदि ग्रहण करने वाले दिगम्बर यति की भी मुक्ति रुक जायेगी, अन्यथा 'स्वयं गृहीत हो वह धर्मोपकरण नहीं होता' – इस नियम का भंग होगा। यदि कहा जाय कि - "पिंछिका आदि का ग्रहण न किया जाय तो विना पूंजे-प्रमार्जे बैठ जाने का अत्यधिक सम्भव होने से सूक्ष्म जीव-जंतुओं की विराधना सहज हो जाने से प्रथम महाव्रत 'समग्र हिंसा से विरमण' का भंग हो जाने की मुसीबत होगी, उस से बचने के लिये,
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