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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् बाकुशिकत्वं च, अक्षालने संसक्तिदोषः; इत्युभयतःपाशा रज्जुरिति तद्ग्रहणं मुक्तिमार्गविरोधि। न, आहारादिग्रहणेऽप्यस्य समानत्वात् । तथाहि – तद्दिग्धस्यास्यादेः प्रक्षालनादावप्कायादिविनाशः अक्षालने प्रवचनोपघात इति तद्ग्रहणस्य मुक्तिमार्गविरोधित्वं कथं न समानम् ? अथ प्रासुकोदकादिना यत्नतस्तद्दिग्धास्यादिप्रक्षालने नायं दोषः। – वस्त्रादिशोधनेऽपि यत्नतः क्रियमाणेऽदोष एव । तेन - 'न साक्षाद् वस्त्रग्रहणस्य मुक्तिसाधनत्वम् रत्नत्रयस्यैव साक्षात् तत्साधनत्वात् । नापि परम्परया रत्नत्रयकारणत्वेन, तद्ग्रहणस्य रत्नत्रयविरोधित्वात् । निष्परिग्रहविरोधि सपरिग्रहत्वमिति सकललोकप्रसिद्धम् रूपज्ञानोत्पत्तेस्तम इव । न च रत्नत्रयहेतुशरीरस्थितिकारणत्वेन वस्त्रादिग्रहणं परम्परया
* आशयशुद्धि से अहिंसा और अपरिग्रह * दिगम्बर :- इतना होने पर भी यदि जयणा आदि विधिपूर्वक आहार का परिभोग किया जाय तो किसी भी जीव की विराधना नहीं होगी। कदाचित् विराधना हो जाय तो भी विशुद्ध आशय से अर्थात् संयमवृद्धि के भाव से जीवरक्षा में सतत प्रयत्नशील रहनेवाले गीतार्थयति को ज्ञानादि के पुष्ट आलम्बन से आहारग्रहण में प्रवृत्त होने के कारण हिंसा का दोष नहीं रहेगा, वह यति अहिंसक ही बना रहेगा। अतः वैसे यति का आहारग्रहण मुक्तिमार्ग का विरोधि नहीं हो सकता।
श्वेताम्बर :- धन्यवाद ! यह भी सोचिये कि शुद्धाशयवाला जीवरक्षाप्रयत्नशील यति विधिपूर्वक वस्त्रादि परिभोग करे तो भी वह अपरिग्रही ही बना रहेगा, तब वस्त्रादिग्रहण भी मुक्तिमार्ग-विरोधि कैसे हो सकता है ? !
* आहार की तरह वस्त्रादि में जयणा से शुद्धि * दिगम्बर :- पहनने पर वस्त्रादि मलिन होगे ही। अब यदि उन को धोयेंगे तो अप्काय जीवों की विराधना होगी एवं वस्त्रधावनादि के कारण बकुशपन भी होगा। बकुशपन यानी एक प्रकार का शिथिलाचार । यदि नहीं धोयेंगे तो घु आदि जीवों की संसक्ति होगी। वस्त्रादि धारण करने वाले यतियों को इस ढंग से दोनों ओर से फाँसा है। सारांश, वस्त्रादि ग्रहण मुक्तिमार्ग का विरोधि है। ___ श्वेताम्बर :- आहारग्रहण भी ऐसी समान युक्ति से मुक्तिमार्ग का विरोधि बन जायेगा। कैसे यह देखिये - आहार हस्त में ग्रहण करेंगे और मुख में प्रक्षेप करेंगे तो हस्त-मुखादि भी मलिन-चीकने होंगे। यदि उन को धोयेंगे तो अप्काय के जीवों की विराधना होगी। नहीं धोयेंगे तो आहार से मलिन हस्त-मुखादि को देख कर लोग खिल्ली उडायेंगे तो प्रवचनोपघात यानी शासननिंदा का बडा दोष होगा – ऐसे दोनों ओर से फाँसा होने से आहारग्रहण को भी समान ढंग से मुक्तिमार्ग का विरोधी क्यों घोषित नहीं करते ?
दिगम्बर :- प्रासुक यानी अचेतन जल से यतनापूर्वक आहार से लिप्त हस्तादि को धोने से कोई दोष नहीं होगा।
श्वेताम्बर :- धन्यवाद ! यतनापूर्वक अचेतन जल से मल-मलिन वस्त्रों को धोने पर भी कोई दोष सम्भव नहीं है।
दिगम्बर का निम्नोक्त प्रलाप भी ऊपर कहे गये युक्तिसंदर्भ से निरस्त हो जाता है। दिगम्बर कहते हैं - ''वस्त्रग्रहण साक्षात् मुक्ति का साधन नहीं है, साक्षात् मुक्ति-उपाय तो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र यह रत्नत्रय ही है। इस रत्नत्रय का कारण होने से परम्परया वस्त्रादिग्रहण मुक्ति-उपाय हो ऐसा भी नहीं है क्योंकि वस्त्रादिग्रहण तो उल्टा रत्नत्रय का विरोधी है। जैसे तिमिर रूपसाक्षात्कार का विरोधी है वैसे परिग्रहधारण भी
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