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पञ्चमः खण्डः का० ६५
मुक्तिसाधनम्, तदन्तरेणापि रत्नत्रयनिमित्तशरीरस्थितिसम्भवात्' आहारग्रहणेऽपि अस्य समानत्वेन प्रदर्शितत्वात् ।
प्रतिक्षिप्तं दृष्टव्यम् अत एव
'साक्षात् पारम्पर्येण वा मुक्त्यनुपयोगिवस्त्रादिग्रहणं रागाद्युपचयहेतुः, तत् स्वीकुर्वन् तृष्णायुक्तत्वात् यत्याभासो गृहस्थं नातिशेते' – इत्याद्यपकर्णनीयम् आगमोक्तविधिना वस्त्रादिग्रहणस्य हिंसाद्यपायरक्षणनिमित्ततया मुक्तिमार्गसम्यग्ज्ञानाद्युपबृंहकत्वात् तत्परित्यागस्य त्वर्वाक्कालीनयत्यपेक्षया तद्बाधकत्वात् ।
ततो विशेष्यसद्भावे ‘सम्यग्ज्ञानाद्यन्वितत्वे सति' इति विशेषणमसिद्धम् सति चास्मिन् विशेष्यमसिद्धम् इति व्यवस्थितम् । तन्न रागाद्यपचयनिमित्तता परव्यावर्णितस्वरूपस्य नैर्ग्रन्थ्यस्य सिद्धा । एव व्यावर्णितस्वरूपनैर्ग्रन्थ्यविपक्षभूतत्वेऽपि वस्त्रादिग्रहणस्य न रागाद्युपचयं प्रति जनकत्वम् तद्विरुद्धेन सम्यग्दर्शनाद्युपचयेन यथोक्तवस्त्रादिग्रहणस्य व्याप्तत्वेन तद्विरुद्धसाधकत्वात् । दृष्टान्तस्यापि परव्याअपरिग्रह का विरोधी है सारी दुनिया इसे जानती है। 'रत्नत्रयसम्पादक देहस्थिति का कारण होने से परम्परया वस्त्रादिग्रहण मुक्ति-उपाय हो' ऐसा भी नहीं है क्योंकि वस्त्रादिग्रहण के बिना भी रत्नत्रयसम्पादक देहस्थिति सुरक्षित हो सकती है । " दिगम्बरों का यह प्रलाप इस लिये निरस्त है कि वस्त्रादिग्रहण देहस्थिति का कारण होने से परम्परया रत्नत्रयपुष्टि करने द्वारा मुक्ति का हेतु बनते हैं यह विस्तृत चर्चा से सिद्ध कर दिया है। यदि दिगम्बर इस ढंग से वस्त्रादिग्रहण की परम्परया मुक्ति – हेतुता का अपलाप करेगा तो उसी ढंग से आहारग्रहण में भी मुक्तिहेतुता का निरसन हो जाने का अनिष्ट होगा - यह समानरूप से उपरोक्त चर्चा में कहा जा चुका है।
* वस्त्रादिग्रहण से रागादि का उपचय असिद्ध
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दिगम्बरों के मत का पर्दाफाश हो चुका है इसी लिये उन का यह प्रलाप श्रवणयोग्य भी नहीं रहता कि ‘साक्षात् अथवा परम्परया जो मुक्तिप्राप्ति में उपयोगी नहीं है ऐसे वस्त्रादि का ग्रहण सिर्फ रागादि की ही वृद्धि करनेवाला है। जो यति उस का ग्रहण करेगा वह बेशक तृष्णापराधीन बनेगा। फिर उस श्रमणाभा और में कोई भेद नहीं रहेगा ।' गृहस्थ यह दिगम्बरप्रलाप श्रवण के काबिल न होने का कारण यह है कि आगमशास्त्र से विहित विधि के अनुसार किया गया वस्त्र - पात्रादि का ग्रहण हिंसा आदि अपायों से बचने में सहायक होने से मुक्ति के उपायभूत सम्यग्ज्ञानादि का पुष्टिकारक है । प्रारम्भिक साधनाकाल में जो यति उस का त्याग कर देता है वह आर्त्तध्यानादि में पडता है और उस के लिये वस्त्रादि का त्याग मुक्तिमार्ग का बाधक बन जाता है ।
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* दिगम्बरोक्त हेतु में विशेषणादि की असिद्धि
दिगम्बर ने पहले प्रयोग में हेतु में विशेष्य अंश में नैर्ग्रन्थ्य शब्द का अर्थ वस्त्रादि का अभाव किया है, किन्तु वह उक्त रीति से सम्यग्ज्ञानादि का बाधक है इसलिये यदि विशेष्यांश का आग्रह रखेंगे तो ‘सम्यग्ज्ञानादि से युक्त होते हुए निर्ग्रन्थता (नग्नता ) ' से पूर्वसूचित परिष्कार में विशेषणांश सम्यग्ज्ञानादियुक्तत्व ही पलायन हो जायेगा, और यदि विशेषण को नहीं छोड़ना है तो विशेष्य अंश 'वस्त्रादिअभावस्वरूप निर्ग्रन्थता' असिद्ध हो जायेगा यह सिद्ध हो जाता है। सारांश, दिगम्बर की बतायी हुई वस्त्रादिअभाव स्वरूप निर्ग्रन्थता रागादिह्रास में सहायक नहीं हो सकती यह सिद्ध होता है। इसी लिये, वस्त्रादिग्रहण दिगम्बरप्रतिपादित वस्त्रादिअभावस्वरूप निर्ग्रन्थता का विपक्षभूत होने पर भी उस में रागादिपुष्टिकारकत्व की सिद्धि की आशा नहीं रख सकते, क्योंकि वस्त्रादि में संयम का विपक्षभूतत्व' हेतु तो उलटा रागादिपुष्टिकारक से विरुद्ध यानी
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इति यदुक्तम् तत् प्रदर्शितन्यायेन
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