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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् - इति वक्तव्यम् क्षुद्वेदनाप्रशमनिमित्तत्रिकोटिपरिशुद्धाहारग्रहणवदङ्गनासम्प्रयोगसंकल्पप्रभववेदनापरिणामोपशमार्थं वृष्यतरमांसाद्याहारग्रहणस्यापि प्रसक्तेः। अथ तथाभूताहारग्रहणे सुतरां क्लिष्टाध्यवसायोत्पत्तिप्राबल्यमिति न तद्ग्रहणम् - तत् स्त्र्यादिग्रहणेऽपि समानम् । ___यदपि वस्त्राद्यभावे संक्लेशपरिमाणोत्पत्तिः कातराणाम् न स्वशरीरमपि काष्ठवद् मन्यमानानां दिग्वाससाम् तथाऽदर्शनात् इति – तदपि अनुभवविरुद्धम्, आर्त्तध्यानोपगतानामनन्तसत्त्वोपमर्दविधाय्यनलारम्भादिप्रतिषिद्धाचरणवत्तया तेषामुपलम्भात् तदनाचरणवतस्त्वात्महिंसकत्वेनाविरत्याश्रयणात् अयतित्वं न्यायतः प्रसक्तम् । अथ गण्डच्छेदनादिप्रादुर्भवदुःखातिशयमसहमानकातरातुरवत् तददुखान्तं न शीतादिदुःखमसहमानः संसारबाधान्तमुपयातुं क्षमः - तर्हि क्षुद्वेदनादुखाऽसहनेऽप्येतत् समानम् । अथ मुक्तिमार्गाविरोधित्वादाहारग्रहणमदुष्टम् – वस्त्रादिग्रहणमप्यत एव किं नादुष्टम् ? अथ वस्त्रादेमलादिदिग्धस्य यूकादिसन्मूर्छनानेकसत्त्वहेतुतया तद्ग्रहणे तद्व्यापत्तेरवश्यंभावित्वात् मुक्तिमार्गाविरोधित्वं अग्निआदि आरम्भ-समारम्भ से दूर रहते हैं – ऐसे इस काल के मुनियों को सख्त ठंडी आदि उपद्रवों में शरीरस्थिति की सुरक्षा वस्त्रादिग्रहण के विना सम्भव नहीं है अतः उन के लिये वस्त्रादि का ग्रहण भी न्याययुक्त है। तथा यह आश्चर्य है कि जब वायुप्रकृतिविकार आदि से पुरुषलिंग में विक्रिया उत्पन्न होती है तब उस का संवरण शासननिंदानिवारण के लिये अत्यन्त आवश्यक होने से उस के लिये तीर्थंकरोने पटलादि वस्त्र विशेष के ग्रहण की अनुज्ञा दी हुई है, फिर भी दिगम्बर मुनि क्यों ऐसी विशिष्ट दोषनिवारक उपधि (=धर्मोपकरण) का ग्रहण नहीं करते ? तथा यह भी आश्चर्य है कि सख्त ठंडी आदि की पीड़ा से होनेवाले आर्तध्यान को रोकने के लिये तीर्थंकरोने प्रमाणयुक्त कपडे आदि के ग्रहण की अनुज्ञा दी है, फिर भी दिगम्बर मुनि उस का ग्रहण न कर के क्यों आर्त्तध्यान का वारण नहीं करते ? ___दिगम्बर :- आर्त्तध्यानपरिणाम को रोकने के लिये यदि आज आप वस्त्रादि ग्रहण करेंगे तो फिर कल स्त्री-पुष्पमाला-चन्दनादि के अभाव में उत्पन्न होनेवाले क्लिष्ट संक्लेशस्वरूप आर्त्त-रौद्र परिणाम को रोकने के लिये स्त्री आदि का भी आप परिग्रह कर बैठेंगे। __श्वेताम्बर :- ऐसा भद्दा तर्क तो आहारग्रहण के लिये भी कर सकते है - यदि आप क्षुधावेदना शान्त करने के लिये आज त्रिकोटिपरिशुद्ध आहार का ग्रहण करते हैं वैसे कल अंगनासंगसंकल्पजन्य आतुरतास्वरूप वेदनापरिणाम के निवारण के लिये वाजीकर मांसादिआहार का भी ग्रहण कर बैठेंगे। __ दिगम्बर :- मांसादिआहार के ग्रहण में तो उलटा जोर से संक्लिष्ट अध्यवसाय जाग्रत होगा, अतः उस का ग्रहण नहीं कर सकते, सिर्फ त्रिकोटिपरिशुद्ध आहारपिण्ड का ही ग्रहण कर सकते हैं। श्वेताम्बर :- तो यह बात स्त्रीआदि ग्रहण के लिये भी तुल्य है, यदि स्त्री का ग्रहण किया जाय तो उस के सेवन से अतिशय संक्लिष्ट अध्यवसाय प्रगट होगा अतः उस का ग्रहण शास्त्रविहित नहीं हो सकता। किन्तु शीतादिजन्यार्त्तध्यान के वारण के लिये त्रिकोटिपरिशुद्ध वस्त्रादिपिण्ड का ग्रहण शास्त्रविहित होने से उचित ही है। * वस्त्रादि के विरह में संक्लेशोत्पत्ति दिगम्बरपक्ष में * दिगम्बरों का यह प्रगल्भन है कि – 'वस्त्रादि के विरह में शीतादि से संक्लिष्ट परिणामों का जन्म कायरों को हो सकता है किन्तु अपने शरीर को भी काष्ठतुल्य समझने वाले निःस्पृह दिगम्बर मुनियों को नहीं होता, क्योंकि वैसा दीखता नहीं है कि निर्वस्त्र दिगम्बर यतियों को वस्त्रादि के विना आर्त्तध्यान होता हो।' – यह प्रगल्भन भी अनुभवविरुद्ध है, क्योंकि बहुत से दिगम्बर यति जब शीतादिवेदना से आर्त्तध्यान में पड़ते हैं तब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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