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पञ्चमः खण्डः का० ६५
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पूर्वकत्वमिति वाच्यम्, मूर्छाविषयत्वे तस्य परिग्रह' शब्दवाच्यत्वोपपत्तेः 'मूर्छा परिग्रहः ' ( तत्त्वार्थ० ७-१२) इति वचनात्। अथ स्रक् - चन्दनादिवदुपभोगार्थं मांसादिभक्षणवत् शरीरबृंहणार्थं वा नासौ गृह्यते किन्तु ज्ञानाद्युपष्टम्भनिमित्तशरीरस्थित्यादिहेतुतया, अतो न तृष्णापूर्वकः नापि ‘परिग्रह 'शब्दवाच्यः । तर्हि वस्त्रादिधर्मोपकरणग्रहणेऽपि समानमेतत् । अथ वस्त्राद्यभावेऽपि शरीरस्थितिसम्भवात् तृष्णापूर्वकमेव तद्ग्रहणम् । न, आहारेऽप्यस्य समानत्वात् ।
अथ तमन्तरेण चिरतरकालशरीरस्थितेरस्मदादेरदर्शनात् वेदनोपशमादिभिः षड्भिर्निमित्तैस्तस्य ग्रहणम् तर्हि अनुत्तमसंहननस्य विशिष्टश्रुताऽपरिकर्मितचित्तवृत्तेः कालातिक्रान्तादिवसतिपरिहारकृतप्रयत्नस्य षड्विधजीवनिकायविध्वंसविधाय्यग्न्याद्यनारम्भिणः शीताद्युपद्रवाद् वस्त्रादिग्रहणमन्तरेण शरीरस्थितेरभावात् तद्ग्रहणमपि न्याय्यम् । तथा, वाय्वादिनिमित्तप्रादुर्भूतविक्रियावल्लिङ्गसंवरणप्रयोजनपटलाद्युपधिविशेषस्य च ग्रहणं किं नाभ्युपगम्यते ? शीतादिबाधोपजायमानार्त्तध्यानप्रतिषेधार्थं युक्तकल्पादेश्चादानं किमिति नेष्यते ? न च स्त्रीस्रक् - चन्दनाद्यभावोपजायमानसंक्लेशपरिणामनिबर्हणार्थं स्त्र्यादेरपि ग्रहणं प्रसज्यते
उत्तर :- आप की यह धारणा गलत है कि तृष्णा के विना वस्त्रादिग्रहण नहीं होता। यदि आप का आग्रह है कि वस्त्रादिग्रहण तृष्णामूलक ही होता है तो आहारग्रहण भी तृष्णामूलक ही होने का अनिष्ट प्रसक्त होगा । यदि कहा जाय आहार का ग्रहण परिग्रहात्मक नहीं है, क्योंकि आहारग्रहण के लिये 'इसने आहार का परिग्रह किया' ऐसा व्यवहार नहीं होता । तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि जो मूर्छा का विषय हो वह निर्विवाद परिग्रहव्यवहार का विषय हो जाता है। श्वेताम्बर शिरोमणि श्री उमास्वाति आचार्य के तत्त्वार्थ सूत्र (७-१२) में स्पष्ट ही निर्देश किया हुआ है कि 'मूर्छा परिग्रह' रूप है। आहार भी गृद्धि - मूर्छा का विषय होता ही है अतः उस का ग्रहण भी तृष्णामूलक परिग्रहस्वरूप ही होगा । यदि कहा जाय जैसे उपभोग के लिये पुष्पमाला-चन्दनादि का ग्रहण होता है, अथवा शरीरबलवृद्धि के लिये मांसादि का भक्षण किया जाता है वैसे यहाँ उपभोग या शरीरबलवृद्धि के लिये मुनिजन आहारग्रहण नहीं करते, किन्तु ज्ञानादि गुणों की पुष्टि निमित्तभूत देहस्थिति को टिकाने के लिये ही आहार लिया जाता है । अतः आहारग्रहण तृष्णामूलक नहीं होता, अत एव वह परिग्रहशब्दप्रयोग की परिधि में नहीं आता । धन्यवाद ! यही बात अब वस्त्रग्रहण के लिये भी समझ लो ! ज्ञानादि के पोषण में निमित्तभूत देहस्थिति के लिये ही वस्त्रादि धर्मोपकरण का ग्रहण किया जाता है, अत एव वह भी परिग्रहशब्दप्रयोग के घेरे में नहीं आ सकते। यदि कहा जाय . तो के विना भी देहस्थिति सुरक्षित रह सकती है, अतः तृष्णा के विना वस्त्रादिग्रहण का सम्भव नहीं । आहारग्रहण में यह बात समान है, आहार के विना भी देहस्थिति कई दिनों तक सुरक्षित रह सकती है, अतः तृष्णा के विना आहारग्रहण भी सम्भव नहीं होगा ।
वस्त्रग्रहण
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* आहारग्रहण की तरह वस्त्रादिग्रहण निर्दोष है
यदि यह कहा जाय हमारे लोगों में दिखता है कि आहार के विना भी सुदीर्घकालपर्यन्त देहस्थिति बनी रहती नहीं है । अतः क्षुद्वेदना का उपशम, सेवा, इर्यासमितिपालन, संयमपालन, जीवदया और धर्मअनुप्रेक्षा इन छः निमित्तों के आलम्बन से आहारग्रहण में दोष नहीं है । तो अब यह वस्त्रादिग्रहण में भी समान है । जिन लोगों का संघयणबल उत्तम नहीं है, चितपरिणाम विशिष्ट श्रुताध्ययन से परिकर्मित नहीं है, जो ऐसी वसति के परिहार में प्रयत्नशील हैं जिस में कालातिक्रान्त आदि दोषों का सम्भव है, जो छः जीवनिकायहिंसाफलक
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