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________________ ३५८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् पत्तिमत्तथाभूतपुरुषत्वे सतीति विशेषणोपादानाददोषः, उन्मत्तदिगम्बरैर्व्यभिचारात् । न चानुन्मत्तत्वे सति इत्यपरविशेषणाद् दोषाभावः, मिथ्यात्वोपेतद्रव्यलिंगावलम्बिदिग्वाससा व्यभिचारात् । न च सम्यग्दर्शनादिसमन्वितपुरुषत्वे सत्यसौ तद्धेतुः ; विशेषणस्यैव तत्र सामर्थ्येन विशेष्यस्याऽसामर्थ्यतोऽनुपादानप्रसक्तेः । न च विशिष्टश्रुतसंहननविकलानामर्वाक्कालभाविपुरुषाणां वस्त्रादिधर्मोपकरणाभावे यतियोग्याहारविरह इव विशिष्टशरीरस्थितेरभावतः सम्यग्दर्शनादिसमन्वितत्वविशेषणोपपत्तिरिति विशेष्यसद्भावो विशेषणस्य बाधक एव। ___ अथ वस्त्रादिपरिग्रहस्य तृष्णापूर्वकत्वात् तस्या च रागादेरवश्यंभावित्वात् सम्यग्दर्शनादेश्च तद्विपक्षत्वात् तृष्णाप्रभववस्त्रग्रहणाभावः स्वकारणनिवृत्तिमन्तरेणानुपपद्यमानो रागादिविपक्षभूतसम्यग्ज्ञानाद्युत्कर्षविधायकत्वात् कथं तद्भावबाधकत्वेनोपदिश्यते ? इति । न, वस्त्रादिपरिग्रहस्य तृष्णानिमित्तत्वे आहारग्रहणस्यापि तथात्वप्रसक्तेः। न चाहारग्रहणस्य परिग्रहव्यवहाराऽविषयत्वात् न तृष्णाहै क्योंकि पाशुपत (शांकर) मतवाले व्रतधारी आर्यपुरुष को नग्न रहने पर भी रागादि का अपचय नहीं होता। यदि जैन व्रतधारी आर्यपुरुष की नग्नता को रागादिह्रास का हेतु माना जाय तो वह भी नहीं घटेगा क्योंकि कारणवश पागल बने हुए (=उन्मत्त) जैन दिगम्बर व्रतधारी को नग्न होने पर भी रागादिह्रास नहीं होता। यदि अब पागल न हो ऐसे को लिया जाय तो भी दोष तो रहेगा, क्योंकि भीतर से मिथ्यात्वी द्रव्यलिङ्गी दिगम्बर को रागादि का ह्रास नहीं होता। अब यदि ऐसा कहें कि सम्यग् दर्शनादि गुणगणोपेत नग्न पुरुष को रागादिह्रास होता है तो यहाँ 'नग्न' कहने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि 'सम्यग्दर्शनादिगुणोपेत' यह विशेषण ही रागादिह्रास में जब समर्थ है तो वस्त्रादिअभाव अन्यथासिद्ध हो जाता है। अतः मूल प्रयोग में 'रागादिअपचयनिमित्तभूत सम्यग्दर्शनादिगुण उपेत वस्त्रादिविरह स्वरूप निर्ग्रन्थता....' ऐसा कहने के बदले ‘रागादिअपचय निमित्त वस्त्रादि-अभावरूप निर्ग्रन्थता' ऐसा जो कहा है वहाँ 'वस्त्रादिअभाव' यह विशेष्य असमर्थ होने से उस का उपादान निरर्थक प्रसक्त होगा, फलतः व्यर्थविशेष्यता यह हेतुदोष पहले प्रयोग में स्पष्ट है। वास्तव में तो 'वस्त्रादि अभाव' निर्ग्रन्थता में या मुक्तिसाधना में प्रतिकुल होने से वह उलटा विशेषण का विरोधी सिद्ध होगा। कैसे यह देखिये - जैसे साधु के लिये ग्रहण योग्य आहार-पानी न मिलने पर संयमानुकुल शरीरधारण न होने से सम्यग्दर्शनादि गुणों की पुष्टि नहीं होती; वैसे ही विशिष्ट श्रुताभ्यास-विशिष्ट संघयणबलादि से शून्य पंचम काल के ऐदंयुगीन पुरुषों के पास यदि धर्मोपकरण (वस्त्र-पात्रादि) न होगा तो संयमानुकुल देहधारण सम्भव न होने से 'सम्यग्दर्शनादिगुणोपेत' यह अंतिम विशेषण सम्पन्न ही नहीं होगा, फलतः वस्त्रादिअभावस्वरूप निर्ग्रन्थता यह विशेष्य ‘सम्यग्दर्शनादिगुणोपेत' विशेषण का बाधक सिद्ध होगा। इस लिये वस्त्रादिअभाव निर्ग्रन्थतास्वरूप नहीं हो सकता। * वस्त्रादि के ग्रहण में तृष्णामूलकत्व के भ्रम का निरसन * प्रश्न :- अरे ! वस्त्रग्रहणाभाव को आप सम्यग्दर्शनादि में बाधक कैसे बता रहे हैं ? वह तो उलटा रागादि के विपक्षभूत सम्यग्ज्ञानादि का उत्कर्ष बढानेवाला है। तृष्णा के विना कोई वस्त्रादि का ग्रहण नहीं करता, अत एव वस्त्रादिग्रहण तृष्णामूलक ही होता है। तृष्णामूलक वस्त्रादि को रखने पर राग-द्वेष का होना अनिवार्य है। सम्यग्दर्शनादि गुण तो रागादि का विपक्ष है। अतः राग-द्वेषादि की निवृत्ति के होने पर ही तृष्णामूलक वस्त्रादिग्रहण का अभाव घट सकता है। तब आप रागादि के विपक्षभूत सम्यग्ज्ञानादि में वस्त्रग्रहणाभाव को बाधक कैसे कह सकते हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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