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पञ्चमः खण्डः - का० ६४ समर्थ इति व्यवस्थितम् ।।६३ ।।
___* अर्थाधीनं सूत्रम्, न सूत्राधीनो अर्थः * सूत्रस्य सूचनार्थत्वात् अर्थवशात् तस्य निष्पत्तिः, न पुनः सूत्रमात्रेणैवान्यनिरपेक्षेणार्थनिष्पत्तिः इत्याह -
सुत्तं अत्थनिमेणं न सुत्तमेत्तेण अत्थपडिवत्ती।
अत्थगई उण णयवायगहणलीला दुरभिगम्मा ।।६४ ।। __ अनेकार्थराशिसूचनात् सूते वाऽस्मादर्थराशिः शेते वाऽस्मिन्नर्थसमूहः श्रूयते वाऽस्मादनेकार्थ इति निरुक्तवशात् सूत्रम् । अर्यत इति अर्थः साक्षात्तस्याऽभिधेयः गम्यश्च सामर्थ्यात् तस्य स्थानमेव सूत्रम् यथाऽर्थं सूत्रार्थव्यवस्थापनात् सूत्रान्तरनिरपेक्षस्य तस्यार्थव्यवस्थापने प्रमाणान्तरबाधया तदर्थस्य तत्सूत्रस्योन्मत्तवाक्यवत् असूत्रत्वापत्तेः। अत एव नियुक्त्याद्यपेक्षत्वात् सूत्रार्थस्य न सूत्रमात्रेणैवार्थस्य पौर्वापर्येणाविरुद्धस्य प्रतिपत्तिः अयथार्थतयाऽप्यविवृतस्य तस्य श्रुतेः। अर्थस्य तु यथावस्थितस्य गतिः सिद्धान्तों के लेशमात्र की जानकारी रखनेवाला ज्ञाता सच्चा सिद्धान्तज्ञाता नहीं। जो सिर्फ एक देश की - लेशमात्र की जानकारी रखता हो उसे पूर्वापर विरोध का भान न रहने से वह सही ढंग से स्याद्वाद महासिद्धान्त के निपुण प्ररूपण में समर्थ नहीं हो सकता, इस में कोई संदेह नहीं है ।।६३ ।।
* सूत्र अर्थाधीन है, अर्थ सूत्राधीन नहीं * __ अर्थ का सूचन करने से 'सूत्र' कहा जाता है। यदि अर्थ ही न हो तो सूत्र का अस्तित्व नहीं रहेगा, अतः सूत्रनिर्माण अर्थाधीन है किन्तु अर्थ सूत्राधीन नहीं होता। एवं व्याख्यानादि अन्यसहाय से निरपेक्ष सूत्र से अर्थ की निष्पत्ति (प्रतिपत्ति) नहीं की जा सकती – यह तथ्य ६४ वीं गाथा से दिखाया जा रहा है -
गाथार्थ :- सूत्र अर्थ का निवासस्थान है, अतः केवल सूत्र से अर्थावबोध नहीं होता। अर्थप्राप्ति नयवाद के विपिन में लीन होने से दुरधिगम्य है ।।६४ ।।
* सूत्रशब्द के विविध व्युत्पत्ति-अर्थ * व्याख्यार्थ :- सूत्र शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से होती है, जैसे : अनेक अर्थसमूह का सूचन करने वाला होने से 'सूत्र' कहा जाता है। अथवा जिस से अर्थसमूह का प्रसव (= बोधात्मक) होता है वह 'सूत्र' है। अथवा जिस में व्याख्यान के विरह में अर्थसमूह सुषुप्त रहता है वह 'सूत्र' है। अथवा जिस के आलम्बन से अनेक अर्थ सुनने को मिलते है वह 'सूत्र' है। 'अर्थ' शब्द 'ऋ'धातु से बनता है, 'ऋ' धातु का अर्थ है ज्ञान अथवा प्राप्ति । सूत्र या शब्द से जिस का साक्षात् ज्ञान, प्राप्ति या अभिधान होता है, वह अर्थ है। सूत्र या शब्द में ऐसा सामर्थ्य होता है जिस से वह अर्थ का प्रतिपादन कर सकता है। इसलिये सूत्र अर्थ का स्थान है - निवासस्थान है। सूत्र यथार्थरूप से अपने अर्थ की व्यवस्था करनेवाला हेता है, किन्तु यह व्यवस्था अन्य सूत्रों से निरपेक्षरूप में वह नहीं कर सकता। अपवादादि सूत्रों के सापेक्ष रह कर ही उत्सर्गादि सूत्र अर्थव्यवस्था कर सकता है। यदि वह अन्यसूत्र को सापेक्ष न रहेगा तो उस की अर्थव्यवस्था में प्रमाणबाध प्रसक्त होने से वह सूत्र पागलों के प्रलाप की तरह सूत्र कहलाने के लायक नहीं रहेगा। यही कारण है कि सूत्रार्थव्यवस्था नियुक्ति आदि अर्थव्याख्यान पर अवलम्बित होने से ही, स्थानकवासी या तेरापंथीयों की तरह केवल सूत्र को पकडने पर उन्हें कभी भी पूर्वापर भाव से अविरुद्ध अर्थ का. अवबोध नहीं होता। कारण, अव्याख्यात सूत्र का बोध अयथार्थ भी हो सकता है ऐसा ज्ञानीयों का परामर्श है।
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