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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् = प्रतिपत्तिः पुनर्द्रव्यार्थ - पर्यायार्थलक्षणनयवादावेव गहनं विपिनम् तत्र लीना तथा च दुरधिगम्या दुरवबोधा । सकलनयसम्मतार्थस्य प्रतिपादकं सूत्रम् ' जीवो अणाइणिहणो'.. (धर्मसंग्रहणी - ३५) इत्यादिवाक्यादत्र" प्रमाणार्थसूचकं स्यात् । प्रवृत्तानि च नयवादेन सूत्राणि, तथा चागमः त्थि एण विहूणं सुत्तं अत्थो य जिणमए किंचि । आसज्ज उ सोआरं गए णअविसारओ बूआ ।। इति ( आव० उवग्घायनि० गा० ३८ ) । । ६४ ।। तम्हा अहिगयसुत्तेण अत्थसंपायणम्मि जइयव्वं । आयरियधीरहत्था हंदि महाणं विलंबेन्ति ॥ ६५ ॥ यत एवमनेकान्तात्मकार्थप्रतिपादकत्वेन सूत्रं व्याख्येयम् 'तस्मात्' इति पूर्वोक्तार्थप्रत्यवमर्शार्थः, अधीतम् अशेषं सूत्रं येनासौ तथा अधीततत्कालव्यावहारिकाशेषसिद्धान्तेन ३५४ = अधिगतम् द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक आदि नयों के बाद अति गहन वन जैसा है, यथावस्थित अर्थावबोध उस में छीपा हुआ है इस लिये वह सुगम नहीं किन्तु अतिदुर्गम है । जिस सूत्र से सकलनयसम्मत अर्थ का निरूपण किया जाता है वह सूत्र प्रमाणार्थ का सूचक कहा जा सकता है, जैसे : ‘जीवो अणाइनिहणो' इत्यादि सूत्रवाक्य । जैनशासन में एक एक सूत्र अनेक नयों के आधार पर व्याख्यात किये जा सकते है, क्योंकि जैन सूत्र सब विविध नयों से गर्भित ही होते हैं, इसी लिये वे प्रमाणार्थ के निरूपक माने जाते हैं । आवश्यक - आगम में यही बात कही गयी है 'जिनशासन में कोई भी सूत्र या अर्थ नय से विधुर नहीं होता । नय- विशारद वक्ता श्रोताओं ( की ग्रहण - धारणादि शक्ति) को लक्ष में रख कर नयनिरूपण करते हैं' ||६४ ॥ = गाथार्थ :- इस लिये सूत्र के ज्ञाता को अर्थ न पढे हुए आचार्य बेशक महापुरुषों की व्याख्यार्थ :- सूत्र की व्याख्या इस ढंग से - अर्थ - सम्पादन में प्रयत्नशील होना चाहिये। धीरहस्त यानी आज्ञा की विडम्बना करते हैं । । ६५ ।। करना चाहिये जिस से कि अनेकान्तगर्भित अर्थ का निरूपण हो ‘तस्मात् ' शब्द से इस तथ्य का परामर्श करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि अत एव सूत्र का सुचारुरूप से ज्ञान प्राप्त करने के बाद अनेकान्तवाद का अवलम्बन कर के सूत्रज्ञाता को सूत्र के अर्थ का अभ्रान्त सम्पादन करने के लिये प्रयत्न करना चाहिये । सूत्रज्ञान का मतलब अपने काल में व्यवहारप्रसिद्ध सम्पूर्ण सिद्धान्त का अध्ययन | अर्थसम्पादन का तात्पर्य है कि प्रमाण और नयों के अवलम्बन से यथार्थ अर्थ का अवधारण। सारांश यह है कि श्रवणयोग्य सूत्र का अध्ययन यानी श्रवण कर के किसी भी नय से सर्वथा Jain Educationa International - * 'वाक्यवद् न' इति पूर्वमुद्रिते अत्र तु लिं० आदर्शानुसारेण पाठः । + 'जीवो अणाइनिहणोऽमुत्तो परिणामी जाणओ कत्ता । मिच्छत्तादिकतस्स य णियकम्मफलस्स भोत्ता उ ।। ३५ ।। अर्थ :- जीव अनादि-अनन्त है, अमूर्त है, परिणमी है, ज्ञाता एवं कर्त्ता है, मिथ्यात्वादि से किये हुए कर्मों के फलों का भोक्ता है । ( धर्मसंग्रहणी गाथा ३५ ) इस गाथा में विविध दुर्नयों के विविध विवादों का निरसन करते हुए ग्रन्थकार श्री हरिभद्रसूरिजीने सभी नयों को सम्मत ऐसे आत्मतत्त्व का स्वरूप दर्शाया है, जैसे- द्रव्यार्थिकनय आत्मा को अनादि-अनंत नित्य मानता है, पर्यायार्थिक नय उस को परिणामी यानी अनित्य मानता है। 1 For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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