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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
तुल्यत्वात् । न च निरन्वयविनाशसंगते चेतसि भावनादेः सम्भव इति प्रतिपादितमनेकशः । न च सौगतं ज्ञानं कथंचिदपि प्रमाणतामासादयति तन्निबन्धनतदाकारोत्पत्त्यादेर्निरस्तत्वात् 'अज्ञातार्थप्रकाशो वा' (प्र० वा० १-७) इत्यस्यापि पारमार्थिकप्रमाणलक्षणस्य प्रतिक्षिप्तत्वात् ।
तदेवमेकान्तवादिप्रकल्पितस्य प्रमाण- प्रमेयादेः सर्वस्याऽघटमानत्वात् तच्छासनं दृष्टवददृष्टार्थेऽपि विसंवादित्वादप्रमाणम्। तत्प्रतिपक्षभूतं च यथोक्तजीवादितत्त्वप्रकाशकं सर्वत्र दृष्टार्थेऽव्यभिचारित्वात् अदृष्टार्थेऽपि सहेतुके हेयोपादेयस्वरूपे बन्धमोक्षलक्षणे वस्तुतत्त्वे प्रमाणमिति स्थितम् । अतः पूर्वापरैकवाक्यतया सकलानन्तधर्मात्मकजीवादितत्त्वप्रतिपादकसूत्रसंदर्भस्य नय - प्रमाणद्वारेण प्रवृत्तस्य तात्पर्यार्थज्ञाता सिद्धान्तज्ञाता न पुनरपरिहृतविरोधतदेकदेशज्ञाता । न चैकदेशज्ञः स्याद्वादप्ररूपणायाः सम्यक् कर वस्तुस्पर्शी मानने की विपदा होगी । ' वहाँ तो अन्य प्रमाणों का बाध है इस लिये भयादिज्ञान वस्तुस्पर्शी नहीं हो सकता' ऐसा कहे तो नैरात्म्यभावना में अथवा क्षणिक अर्थ होने में भी अन्य प्रमाणों का बाध सम्भव है। अर्थात् आत्मसत्ता साधक अथवा स्थिरतासाधक कई प्रमाण क्रमशः नैरात्म्य अथवा क्षणिक अर्थ
बाधक हैं। वस्तुतः भावनाप्रकर्षजन्य ज्ञान में भी पूर्वोपलब्ध पदार्थ की विषयता सम्भव नहीं है, क्योंकि भावना विकल्पात्मक है अतः अविकल्प का विषय कभी उस का विषय नहीं हो सकता । अर्थात् भावनात्मक विकल्प का विषय नैरात्म्यादि कभी भी अविकल्प का विषय न होने से प्रमाणभूत नहीं माना जा सकता । यदि कहा जाय कि 'भावनारहित काल में क्षणिक पदार्थ या नैरात्म्य, अविकल्प से दृष्ट होने के कारण उस में अन्य प्रमाण का बाध असम्भव है' तो आत्मा या स्थिरपदार्थ के लिये भी इस तरह कह सकते हैं कि भावनारहित काल में वे भी प्रत्यक्षादि से दृष्ट है, अतः उस में भी अन्य प्रमाण का बाध असम्भव है। वास्तव में, बौद्धमत में नैरात्म्यभावना भी कोई संगत पदार्थ नहीं है, क्योंकि उस के मत में वस्तुमात्र निरन्वयनाशशील हे, कोई स्थायी वस्तु या अनेकक्षण में प्रवाहित वस्तु ही नहीं है तो अनेकक्षण भावी भावना भी कैसे हो सकती है ? अनेकबार यह तथ्य कहा जा चुका है। एक और बात यह है कि बुद्ध का ज्ञान प्रमाणमुद्रा को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि प्रामाण्य का मूल है अर्थाकार ज्ञानोत्पत्ति, बौद्धमत में अर्थ (स्वलक्षण) और ज्ञान समानक्षणवृत्ति न होने से अर्थाकार ज्ञानोत्पाद सम्भव नहीं है । प्रमाणवार्त्तिक में (१७) 'अज्ञातार्थप्रकाशो वा स्वरूपाधिगतेः परम्' इस श्लोकार्ध से जो पारमार्थिक माने जाने वाले अज्ञातार्थप्रकाशरूप लक्षण का निरूपण किया है वह भी पहले निरस्त किया जा चुका है ।
* दृष्टविषयाविसंवादी होने से अनेकान्तवाद प्रमाण है
निष्कर्ष एकान्तवादियों ने जो प्रमाण - प्रमेयादि की प्रक्रिया दिखाई है वह अत्यन्त दुर्घट है, विसंवादी है, जैसे दृष्ट पदार्थों के बारे में विसंवादी है वैसे ही अदृष्ट- अतीन्द्रिय पदार्थों के बारे में भी विसंवादी है, अत एव अप्रमाण है। एकान्तवाद का विपक्ष यानी अनेकान्तवाद प्रमाणभूत है क्योंकि उस में युक्तिसंगत जीवादि तत्त्वों का निरूपण है, किसी भी दृष्ट विषय में विसंवादी नहीं है, इस लिये सहेतुक यानी हेतुवादसंगत अतीन्द्रिय हेय बन्धादि और उपादेय मोक्षादि स्वरूप वस्तु तत्त्व के विषय में भी प्रमाण है यह सुनिश्चित सत्य है ।
व्याख्याकार ६३ वीं गाथासूत्र का हार्द दिखाते हुए कहते हैं कि सच्चा सिद्धान्तज्ञाता वही है जो नय और प्रमाण के माध्यम से, पूर्वापर एकवाक्यता से अलंकृत एवं समस्त अनन्तपर्यायात्मक जीवादितत्त्व के प्रकाशक, ऐसे सूत्र समूह के तात्पर्यार्थ का ज्ञाता हो । जिस में पूर्वापर विरोध का परिहार न किया गया हो, ऐसे
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