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पञ्चमः खण्डः का० ६३
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तोऽपि तत्सिद्धिः तत्प्रतिबद्धलिङ्गाऽप्रतिपत्तेः । न च लोकप्रसिद्धप्रमाणस्य प्रमाणताऽभ्युपगता 'सर्व एवाऽयं प्रमाण' ० इत्याद्यभिधानात्। न चाऽप्रमाणकवस्तुभावनाप्रकर्षजं ज्ञानमभ्रान्तम्, काम-शोकभयादिज्ञानस्य भावनाप्रकर्षजस्यापि भ्रान्तत्वोपलब्धेः, नैरात्म्यादेश्च वस्तुनोऽप्रमाणोपपन्नत्वप्रतिपादनात् । न च सत्यभयादिज्ञानपूर्वकस्यापि भावनोत्थभयज्ञानस्य सत्यतोपलब्धा इत्यस्याप्यसत्यताप्रसक्तिः । ‘अध्यारोपात् कामादिज्ञानस्याऽसत्यता' इति चेत् ? अत्राप्यध्यारोपः समानः इन्द्रियज्ञानग्राह्यवस्तुनः तद्विषयत्वेनाभावात् निर्विकल्पविषयस्य विकल्पज्ञानविषयत्वविरोधात् ।
न च भावनाजमविकल्पम् विशदत्वात् इति वाच्यम् तथात्वेऽपि तत्प्रतिभासस्याभ्यासकृतत्वेन तत्र मिथ्यात्वोपपत्तेः । न च तत्प्रतिभासो वस्तुकृत एव न भावनाकृत इति वाच्यम्, इतरत्रापि तथा प्रसक्तेः। न च प्रमाणान्तरबाधातः तत्रासौ न तत्कृतः, अत्रापि तद्वाधासम्भवात् क्षणिकस्यार्थस्य प्रमाणान्तरतः प्रागुपलब्धस्य भावनाप्रकर्षजे ज्ञानेऽसम्भवात् अविकल्पविषयस्य भावनाविकल्पविषयत्वायोगात् तत्प्रकर्षजेऽपि तस्याऽप्रतिभासनात् । न चान्यदा तस्य दृष्टत्वाद् न प्रमाणबाधा, इतरत्राप्यस्य को सुगत का ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है इसलिये प्रत्यक्ष से सुगत के अभ्रान्तज्ञान की सिद्धि दुष्कर है। अनुमान से भी उस की सिद्धि हो नहीं सकती, क्योंकि सुगतज्ञान का अविनाभावी कोई तत्त्व नहीं है जो लिङ्ग बन कर उस के अभ्रान्तज्ञान का अनुमान करा सके। दूसरी बात यह है कि यदि लोकप्रसिद्ध प्रमाण से उस की सिद्धि करने की चेष्टा करे तो वह निष्फल होगी क्योंकि लोकप्रसिद्ध प्रमाणों में आप तो प्रामाण्य स्वीकारने को तैयार नहीं है.. आप तो कहते है कि 'यह पूरा प्रमाण- प्रमेय व्यवहार भ्रान्तिरूप है ।'
जब सुगत का ज्ञान प्रमाणसिद्ध वस्तु ही नहीं है, तब उस का भावना के प्रकर्ष से उत्पन्न ज्ञान अभ्रान्त कैसे हो सकता है ? भावनाप्रकर्ष से उत्पन्न होने वाला कामवासना-शोकवासना-भयवासना प्रेरित ज्ञान भ्रान्त होता है यह दिखाई देता है । नैरात्म्य भावना का विषय नैरात्म्य = आत्मा का अभाव भी प्रमाणसिद्ध वस्तु नहीं है यह पहले कहा जा चुका है। कभी कोई भय का स्रोत सत्य होता है तब भयादि का सत्य ज्ञान होता है, किन्तु उस के बाद भयवासना जाग्रत होने पर भयस्रोत नहीं होता फिर भी भावना से भयज्ञान पैदा हो जाता है। वह भयज्ञान सत्यभयज्ञानपूर्वक होने पर भी भावनाजन्य होने से मिथ्या होता है । जब इस में सत्यता की उपलब्धि नहीं है तो नैरात्म्यभावनाजन्य ज्ञान में असत्यता क्यों प्रसक्त नहीं होगी ? यदि कहा जाय कि ‘भय-कामादिज्ञान तो अध्यारोपात्मक होने से सत्य नहीं होता, नैरात्म्यभावना जनित ज्ञान अध्यारोप नहीं होता इस लिये वह सत्य हो सकता है।' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि नैरात्म्यभावनाजनित ज्ञान में भी अध्यारोप समान है, क्योंकि उस ज्ञान का विषय न तो इन्द्रियज्ञान (प्रत्यक्ष ) ग्राह्य वस्तु होती है, न निर्विकल्प का विषय उस का विषय होता है, भावनाजन्य ज्ञान तो विकल्पात्मक है, विकल्पात्मक ज्ञान का विषय निर्विकल्पग्राह्यविषयात्मक नहीं हो सकता ।
* विशद नैरात्म्यज्ञान भी मिथ्या है
यदि भावनाजन्य ज्ञान को विशद = स्पष्ट होने के कारण निर्विकल्प ही माना जाय जिस से कि नैरात्म्य प्रमाणित हो सके तो वह अनुचित है क्योंकि विशद होने पर भी भावनाजन्यप्रतिभास है तो आखिर अभ्यासप्रेरित, जो अभ्यास प्रेरित ज्ञान होता है वह वस्तुस्पर्शी होने का नियम नहीं है अतः नैरात्म्यज्ञान विशद होने पर भी मिथ्या है। यदि कहा जाय कि – ' नैरात्म्यबोध वस्तुस्पर्शी ही होता है न कि भावनाप्रेरित' तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि तब भय - शोक की भावना से उत्पन्न ज्ञान को भी भावनाजन्य न मान
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