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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् परमाणुस्वलक्षणानुभवस्याभावात् अन्यस्य चानभ्युपगमात् । अभ्युपगमे वा शब्दस्यानेकान्तवस्तुविषयप्रामाण्यप्रसङ्गः त्रिरूपलिङ्गप्रतिपादकवाक्यवत् पारम्पर्येण तस्य तत्र प्रतिबन्धात् । न चैवमपि विशेषैकान्तसिद्धिः उभयवादप्राप्तिप्रसङ्गात् । तन्न द्वितीयविकल्पस्यापि संभवः । 'तृतीयविकल्पोऽपि प्रत्येकपक्षभाविदोषप्रसङ्गतोऽनभ्युपगमविषयः । न च परस्परनिरपेक्षयोः सामान्यविशेषयोरसत्त्वे तदारब्धोभयवादो युक्तः अङ्गुलीद्वयाभावे तत्संयोगवत् । ३४८ हो जाता है, तब एकान्तवादी बौद्धोंने जो यह कहा है कि ' शब्द यद्यपि बाह्य स्वलक्षणात्मक वस्तुगोचर नहीं होता फिर भी वस्तुप्रापक व्यवहार में प्रयोजक विकल्प को पैदा करने से प्रमाणभूत होता है' यह अयुक्त ठहरेगा, क्योंकि एकान्तवाद शाब्दव्यवहार को ही लोप प्रसक्त है, कारण, यथार्थ वस्तु का बोधक कोई नाम ही हो नहीं सकता। फलतः, 'खरशृंग' शब्द से जनित विकल्प का आकार और 'दूध पीओ' इन शब्दों से जनित विकल्प का आकार दोनों समानरूप से असदाकार स्वरूप हो जाने से उन में कोई भेद नहीं रहेगा। भेद नहीं रहने का कारण यह कि दोनों विकल्पों के आकार की प्रवृत्ति वास्तविक वस्तुगोचर अनुभव के विरह में ही हुई है । परिणाम यह आयेगा कि बाह्यवस्तुगोचर प्रवृत्ति का ही उच्छेद हो जायेगा । यदि यह कहा जाय कि प्रवृत्ति का उच्छेद नहीं होगा क्योंकि विकल्प से वस्तु का यथार्थज्ञान न होने पर भी वस्तु का अध्यवसाय तो होता ही है और ऐसे मिथ्या अध्यवसाय से भी प्रवृत्ति हो सकती है। - तो यह नितान्त गलत है क्योंकि मिथ्या अध्यवसाय से प्रवृत्ति उसी वस्तु के बारे में हो सकती है जब कभी उस वस्तु के बारे में पहले कभी तात्त्विक ग्रहण हो चुका हो । किन्तु आपके मत में तो विकल्प से कभी वस्तुतत्त्व का ग्रहण हुआ ही नहीं, तब अतत्त्व में तत्त्वरूपता के अध्यारोप अध्यवसाय होने का सम्भव ही कहाँ है जिस से प्रवृत्ति हो सके। पहले कभी सत्यजल का विकल्प हुआ हो तब कभी मृगमरिचिका में जलाकार के अध्यारोप के द्वारा उस के लिये प्रवृत्ति होना सम्भव है, किन्तु तात्त्विक जल का विकल्प से ग्रहण ही नहीं हुआ, तो उस से प्रवृत्ति और सत्य जल की प्राप्ति का सम्भव कहाँ रहता है ? एकान्तवादी बौद्धोंने जो स्वलक्षण के निर्विकल्प अनुभव के बल से निपजनेवाले विकल्प के द्वारा उत्पन्न होने वाले शब्द को प्रवृत्ति का संवादी होने की कल्पना कर बतायी है वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि उस के मतानुसार स्वलक्षण तो निरंश एक परमाणु रूप ही है और वह भी क्षणिक, इस लिये उसका निर्विकल्प अनुभव सम्भव ही नहीं है। तथा, परमाणु के अलावा कोई स्थूल अवयवी द्रव्य उसे मान्य नहीं है तब उस के अनुभव बल पर विकल्प, उस विकल्प से संवादी शब्द की सम्भावना ही दूर भाग जायेगी । यदि वह परमाणुपुञ्जात्मक स्थूल द्रव्य का स्वीकार कर लेगा तब तो एकानेकात्मकवस्तु के स्वीकार से अनेकान्तवस्तुगोचर शब्द प्रमाण का स्वीकार भी उस के गले में आ पडेगा । कारण, तीनरूपवाले लिंग के प्रतिपादक वाक्य की तरह अन्य शब्दों का भी परम्परया अनकान्तात्मक वस्तु के साथ सम्बन्ध बैठ जाता है। लेकिन इस स्थिति में भी सामान्यविशेषोभयात्मक वस्तु की प्राप्ति होने से एकान्ततः स्वतन्त्र विशेष की सिद्धि तो दूर ही रह जायेगी । निष्कर्ष :- एकान्तवाद में 'विशेष शब्दवाच्य है' यह दूसरा विकल्प भी युक्तिसंगत नहीं है। * सामान्य - विशेष उभय की वाच्यता का तीसरा विकल्प * तीसरा विकल्प- सामान्य को और विशेष को दोनों को शब्द का वाच्यार्थ माना जाय यह भी स्वीकृतिपात्र नहीं है क्योंकि जो दोष सामान्य-पक्ष में दिये गये हैं, एवं जो दोष विशेषपक्ष में दिये गये हैं वे सब उभयपक्ष में प्रविष्ट हो सकते हैं। सच तो यह है कि स्वतन्त्र, परस्पर निरपेक्ष न तो सामान्य का अस्तित्व है न विशेष का। अत एव परस्पर निरपेक्ष उभयवाद भी गलत है। जब दो ऊँगली विद्यमान हो तब तो उस का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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