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पञ्चमः खण्डः - का०६३
३४९ "अनुभयविकल्पाभ्युपगमोऽप्यसंगतः प्रतिनियतसामान्यविशेषयोरनभिधाने प्रवृत्त्यादिव्यवहाराभावप्रसक्तेः। न चानुभयपक्षः सम्भवति, अन्योन्यव्यवच्छेदरूपयोरन्यतरनिषेधस्य तदपरविधिनान्तरीयकत्वात् । परस्परापेक्षया द्वयोरपि उपसर्जनत्वे निरपेक्षत्वे चासत्त्वमेव सापेक्षत्वे चेतरेतराश्रयदोषानुषङ्गः । द्वयोरपि प्राधान्ये सापेक्षत्वानुपपत्तेरसत्त्वमेव । अन्यतरस्यैवोपसर्जनत्वे निमित्तानुपपत्तिः। द्वयोरप्यौदासीन्याभ्युपगमेऽसंव्यवहार्यतोपपत्तिः। तदतदात्मकैकवस्तुनो यथाक्षयोपशमं प्रमाणतः प्रधानोपसर्जनतया प्रतिपत्त्यभ्युपगमे ‘स्यात् सामान्य-विशेषात्मकं वस्तु' इत्यशेषरूपात्मकवस्तुप्रतिपादकत्वेन शब्दादेः प्रमाणभूतप्रतिपत्तिनिबन्धनस्याभ्युपगमात् अनेकान्तमतानुप्रवेशः, समानाऽसमानपरिणामात्मकैकवस्तुसंयोग विश्वासपात्र है किन्तु दो ऊँगली ही जहाँ न हो वहाँ उस के संयोग का क्या भरोसा ?
* अनुभय की वाच्यता का चौथा विकल्प * चौथा विकल्प – प्रथम-द्वितीय दोनों का निषेध यानी अनुभय का है। अर्थात् शब्द का वाच्य न तो सामान्य है, न विशेष । किन्तु यह विकल्प भी असंगत है। कारण, शब्द से यदि विशेष में से किसी भी एक नियत पदार्थ का प्रतिपादन ही नहीं माना जाय तो शब्दमूलक प्रवृत्ति-निवृत्ति आदि पूरे व्यवहारों का उच्छेद मानना पडेगा। वास्तव में, अनुभयपक्ष सम्भवारूढ भी नहीं है। कारण यह है कि अनुभय का अर्थ है सामान्य और विशेष यानी उभय का निषेध। सोचना यह है कि सामान्य का निषेध करने पर विशेष को शब्दवाच्य मानना पडेगा, क्योंकि तीसरा कोई वाच्यार्थ हो यह सम्भव नहीं है। (अतः विशेष को वाच्यार्थ मानने पर विशेषपक्षकथित दोष प्रसक्त होंगे।) एवं विशेष का निषेध, सामान्य के विधान में पर्यवसित होगा। जहाँ दो पदार्थ एक दूसरे के व्यवच्छेदरूप होते हैं वहाँ किसी एक का निषेध करने पर शेष दूसरे का विधान अनिवार्य हो जाता है। (अतः यहाँ सामान्यपक्षकथित दोष भी प्रसक्त होगें।)
यदि व्यवहारसम्पादन के लिये एक-दूसरे की अपेक्षा एक दूसरे को गौण वाच्य मान लिया जाय – अर्थात् सामान्यवादी सामान्य की अपेक्षा विशेष को गौण वाच्य माने और विशेषवादी विशेष की अपेक्षा सामान्य को गौण वाच्य माने तो यहाँ समस्या यह है कि उभय वादी उन दोनों को सर्वथा निरपेक्ष (स्वतन्त्र) मानेंगे तो पूर्वकथनानुसार उन का असत्त्व प्रसक्त है, क्योंकि स्वतन्त्र सामान्य का या विशेष का अस्तित्व ही खतरे में है। यदि उन दोनों को परस्पर सापेक्ष मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त होगा क्योंकि अपने अपने मान्य पदार्थ में मुख्यता सिद्ध होने पर अन्य स्वीकृत पदार्थ में गौणता सिद्ध होगी, गौणता की सिद्धि होने पर मुख्यता की सिद्धि होगी।
यदि परस्पर सापेक्ष सामान्य-विशेष दोनों को प्रधान माना जाय तो पुनः असत्त्व प्रसक्त होगा, क्योंकि सापेक्षभाव में एक प्रधान एक गौण अवश्य होता है, अतः उभय प्रधान असत् हैं। यदि ऐसा भी माना जाय कि एक प्रधान, दूसरा गौण – तो एकान्तमत में ऐसा मानने के लिये (अर्थात् एक को गौण या प्रधान मानने के लिये) कोई आधारभूत निमित्त ही नहीं है। यदि सामान्य-विशेष दोनों को गौण-प्रधान भावमें सर्वथा उदासीन ही माना जाय (यानी कौन गौण कौन प्रधान इस चर्चा को निरवकाश बताया जाय) तो उदासीन होने के कारण वे व्यवहार के योग्य ही नहीं रहेंगे।
* अनेकान्तवाद में शब्दप्रमाण का यथार्थविषय * ___ यदि ऐसा माना जाय कि वस्तु भिन्न भिन्न अपेक्षा से कथंचित् सामान्यरूप होती है और नहीं भी होती; एवं कथंचित् विशेषरूप होती है और नहीं भी होती – अर्थात् कथंचित् सामान्य-विशेषोभयात्मक होती है।
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