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पञ्चमः खण्डः - का० ६३
३४७ तेषां चैकत्रैव सामर्थ्य तस्यैकस्यैकपरमाणुरूपत्वेऽनुपलभ्यताप्रसक्तिः अनेकाणुरूपत्वे एककार्यत्वविरोधः, एकस्य तत्कर्तृत्वविरोधश्च स्थूलैकवस्तुनस्तदेककार्यत्वे तस्य समानरूपताप्रसङ्गः, स्वारम्भावयवद्रव्यव्यापकैकरूपत्वात् । एवं च विशेषमात्रवादत्यागः।
स्वावयवसाधारणैकरूपवस्त्वनभ्युपगमेऽपि च प्रतिनियतविषयप्रतिपत्त्यभावप्रसक्तिः। अनेकावयवात्मकैकस्थूलवस्त्वभावे तदाकारप्रतिपत्तेरभावात् सर्वदा सर्वस्यास्तस्यास्तदाकारतयैव संवेदनात् अन्योन्यानुविद्धाऽननुविद्धवस्तुव्यवस्थापकप्रमाणाभावे च प्रमाणान्तरप्रतिपन्नतथाभूतवस्तुप्रतिपादकाभिधानस्याप्यसम्भवात् प्रतिनियतप्रवृत्तिहेतुशाब्दव्यवहाराभावप्रसक्तिश्च । अत एव तथाभूतविकल्पजननात् 'शब्दः प्रमाणमसत्यपि बाह्यस्वलक्षणविषयत्वे'... इत्युक्तम् । “पयः पीयताम्' इत्यभिधानोत्थापितविकल्पाकारस्य खरविषाणशब्दोत्थापितविकल्पाकाराद् अभेदप्रसक्तेः सर्वत्र तथाभूतवस्त्वनुभवाभाव एव विकल्पाकारप्रवृत्तेर्बहिष्प्रवृत्त्यभावश्च । न च तदध्यवसायेन तत्र प्रवृत्तिः, सर्वदा तत्तत्त्वाऽग्रहणेऽतत्त्वस्य तत्त्वरूपतया तत्राध्यारोपाऽसम्भवात् । न चैवं मृगतृष्णिकास्वध्यारोपितोदकाकारस्येव तस्य प्राप्तिर्भवेत् । न च स्वलक्षणानुभवद्वारायातविकल्पप्रभवशब्दस्य संवादित्वकल्पनाऽपि भवन्मतेन संगता, निरंशक्षणिकमान कर उस को शब्दवाच्य मानेंगे' – तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि एक कार्य में भी ये ही मुसीबतें खडी हैं कि एक कार्य समुच्चयात्मक है या नहीं ? यदि वह वस्तुरूप है तब तो समुच्चित विशेषों से अतिरिक्त नहीं होगा और यदि वह अवस्तुरूप - असत् है तो उस के कार्यरूप होने में विरोध होगा, क्योंकि असत् कार्यरूप नहीं होता। दूसरी बात यह है कि एककार्यकारी समुचित विशेषों से जो एक कार्य किया जाता है वह भी यदि एक परमाणुस्वरूप ही होगा तो उपलब्धियोग्य ही नहीं होगा। यदि वह कार्य अनेकपरमाणुरूप होगा तो उन में (एक) कार्यता का ही विरोध होगा। एवं कार्यरूप परमाणु अनेक होने से उस के कारण भी एक नहीं अनेकात्मक ही मानना पडेगा, अतः कार्यों में एक कर्तृत्व का विरोध प्रसक्त होगा। यदि किसी एक स्थूल वस्तु को उन समुच्चित अनेक परमाणुओं के एक समुच्चय का कार्य मानेंगे तो वह स्थूल वस्तुरूप कार्य में समानरूपता की यानी सामान्यमयत्व की प्रसक्ति होगी, क्योंकि अपने आरम्भक अवयव (परमाणु) जो कि अनेक हैं उन सभी के प्रति व्यापक रूप से वह स्थूल एक वस्तु 'समान कार्य रूप' है। फलतः सामान्यात्मकत्व की प्रसक्ति होने से विशेषरूपता का विलोप प्रसक्त होगा।
* अनेकावयवात्मक स्थूल अवयवी का अपलाप अशक्य * यदि विशेषलोप के अनिष्ट से बचने के लिये अपने अवयवों में सम्बद्ध साधारण एक स्थूल वस्तुका अपलाप किया जाय तो नियत एक विषय का शब्द से बोध नहीं हो सकेगा। दूसरी विपदा यह है - यदि जैनमतसम्मत अनेकावयवात्मक ही एक स्थूल अवयवी वस्तु का स्वीकार नहीं करेंगे तो आयत-वृत्त आदि नियत वस्तुआकारों की प्रतीति असम्भव हो जायेगी, जब कि सभी दृष्टाओं को सर्वकाल में कोई भी स्थूल वस्तु किसी एक विशिष्टाकारवाली ही संविदित होती है। अनेकान्तमतानुसार, हर कोई वस्तु एक-दूसरे से कथंचित् अनुविद्ध एवं अननुविद्ध ही प्रमाणगोचर है, यदि ऐसी वस्तु के स्थापक प्रमाण का अपलाप किया जायेगा तो अन्य प्रमाण से प्रसिद्ध ऐसे नामाभिधान का भी असंभव प्रसक्त होगा जिस नामाभिधान से (उदा० चित्रपद से) अनेकान्तात्मक वस्तु का ही प्रतिपादन किया जाता है। इस का नतीजा यह होगा कि नियतप्रवृत्तिकारक शब्दव्यवहार का भी लोप प्रसक्त होगा। जब अनेकान्तवाद न स्वीकारने पर शाब्द व्यवहार ही शून्य प्रसक्त
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