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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् (मीमांसा. १-२-१) इति । न च विध्यङ्गताऽपि अर्थवादादिवाक्यानां पराभ्युपगमेन सम्भवति सामान्यदेस्तदर्थस्यासम्भवेन विध्यर्थोपकारकत्वाऽयोगतोऽर्थद्वारेण तेषां तदङ्गत्वानुपपत्तेः। न चार्थकृतं सम्बन्धमपहाय शब्दः शब्दान्तरस्याङ्गभावमासादयतीत्यतिप्रसङ्गात् । तन सामान्यशब्दार्थवादिप्रकल्पितं तत् तदभिधेयं सम्भवतीति न प्रथमपक्षाभ्युपगमः श्रेयान् । ___द्वितीयविकल्पाभ्युपगमेऽपि विशेषाः किं समुच्चिताः शब्दवाच्याः ? उत विकल्पिताः ? इति वक्तव्यम् । यदि विकल्पिता इति पक्षस्तदा एकविशेषव्यतिरेकेणान्येषां विशेषाणां न विवक्षितदुग्धशब्दवाच्यता स्यात् ततश्चैकपयःपरमाणोरन्यत्र तत्परमाण्वादौ न दुग्धशब्दात् प्रतिपत्ति-प्रवृत्ती स्याताम् । समुच्चितानामपि तेषां तच्छन्दवाच्यत्वे एकस्मिन्नपि पयसि तद्बहुत्वप्रसङ्गः परस्परविविक्तपयःपरमाणूनां तत्रानेकत्वात् । न च तत्समुच्चयेऽपि पयः, तद्व्यतिरेकेण तदनभ्युपगमात् तथा तस्याऽप्रतीतेश्च । न चैककार्यकारितया तथा व्यपदेशः, तस्यापि वस्तुत्वे तद्रूपत्वात् अवस्तुत्वे कार्यविरोधात् । लिये क्रियार्थक न हो वैसे वेदवाक्य प्रमाण नहीं है।' यहाँ परामर्श यह करना है कि एकान्तवादी के मत के अनुसार अर्थवादादि वाक्य में विधि-अङ्गरूपता घट नहीं सकती, क्योंकि अर्थवादादि वाक्यों का सामान्यादि कोई अर्थ ही एकान्तवाद में संगत नहीं हो सकता, तो फिर विध्यर्थ के उपकारक होने की तो बात ही कहाँ ? फलतः अर्थ द्वारा वे विधि के अंग भी बन नहीं सकते। एक शब्द अन्य शब्द का अंगरूप तभी बन सकता है जब उस का उस के साथ कोई अर्थकृत सम्बन्ध हो। अर्थप्रयुक्त सम्बन्ध के विना यदि कोई शब्द दूसरे शब्द का उपकारक बन सके तो लौकिक शब्द भी विधिशब्द का उपकारक बन जाने का अतिप्रसंग हो सकता है। निष्कर्ष यह है कि सामान्य को शब्द का वाच्यार्थ मानने वाले एकान्तवादियों के पक्ष में, अनेक दोषों के कारण सामान्य में शब्दवाच्यता की संगति असम्भव है। अतः पृष्ठ ३२० से ३२१ में जिन चार विकल्पों का निर्देश किया गया है उन में से प्रथम विकल्प का अंगीकार निष्फल है यह सिद्ध होता है। (अब तक विस्तृत विवेचन सब प्रथम विकल्प का ही हुआ, अन्य तीन विकल्पों का विवेचन संक्षेप में अब करेंगें।)
* विशेष शब्दवाच्य है ? दूसरा विकल्प * विशेष को शब्दवाच्य माना जाय – यह दूसरा विकल्प विमर्शारूढ है – समुच्चित (यानी समूहभाव में रहे हुए) विशेषों को शब्दवाच्य मानना या विकल्पित (यानी पृथक् पृथक्) एक एक विशेष को ? यह सोचा जाय । यदि विकल्पित विशेष को शब्दवाच्य माना जाय तो विवक्षित एक 'दुग्ध' शब्द किसी एक विशेष (दुग्ध व्यक्ति) का वाचक होगा किन्तु अन्य सभी दुग्धव्यक्तियों का वाचक नहीं बनेगा। नतिजा यह होगा कि एक 'दुग्ध' शब्द से किसी एक ही दुग्ध-परमाणु का बोध होगा, उस में ही प्रवृत्ति होगी; किन्तु अन्य दुग्धपरमाणुओं का बोध एवं उन में प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। ___यदि सब समुचित विशेषों को शब्दवाच्य माना जाय तो इस दूसरे विकल्प में, किसी एक दुग्ध (अवयवीस्कन्ध) में भी दुग्ध-बहुत्व यानी अनेकत्व की प्रसक्ति होगी, क्योंकि एक दुग्ध (अवयवी) में भी परस्पर पृथक् अनेक दुग्ध-परमाणु मौजूद रहते हैं। यदि कहें कि समुच्चित विशेषों को नहीं किन्तु विशेषों के समुच्चय को पयस् आदि शब्दवाच्य माना जाय तो यहाँ भी तुल्य दोष है क्योंकि समुचित विशेषों से अतिरिक्त कोई समुच्चय जैसी चीज ही नहीं होती, न तो उस की उन से पृथक् प्रतीति होती है। यदि यह कहा जाय कि - ‘समुच्चित विशेष मिल कर एक कार्य निष्पन्न करते हैं, अत एव एककार्यकारी होने से उसे एक समुच्चयरूप K. पयःशब्दप्रवृत्तिः इत्यभिप्रायः ।
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