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________________ पञ्चम: खण्ड: का० ६३ ३४५ गन्धादिपर्यवसितं तदा प्रसज्येत । अथ चक्षुरादिप्रभवं रूपादिज्ञानं न गन्धादिसाक्षात्कारि इति नायं दोषः। तर्हि पदप्रभवं पदार्थज्ञानमपि न वाक्यार्थावभासि इति न तत्पर्यवसितमभ्युपगन्तव्यम् । चक्षुरादेर्गन्धादाविव पदस्यापि वाक्यार्थसम्बन्धानवगमात् सामर्थ्यानुपपत्तेः । न च पदात् सामान्यमात्रपदार्थप्रतिपत्तावपि तद्विशेषप्रतिपत्तिः स्यात्, विशेषरूपेण तु प्रवृत्त्यादिव्यवहारसमर्थो वाक्यार्थो न संसर्गमात्रम् तस्याऽर्थक्रियाऽक्षमस्य श्रोत्रनभिवाञ्छितत्वात्, अनभिवाञ्छितार्थप्रतिपादकस्य च वचस उन्मत्तकविरुतस्येवाऽप्रमाणत्वात्। न च विशेषमन्तरेण सामान्यमनुपपद्यमानं संसर्गविशेषमवबोधयतीति शक्यं वक्तुम् आधारप्रतिपत्तावपि तद्विशेषप्रतिपत्तेरयोगात् । न हि 'पय आनीयताम्' इत्युक्ते तदाधारमात्रप्रतिपत्तावपि कुटादिविशेषप्रतिपत्तिः सम्भविनी । तद् न अन्विताभिधानम् अभिहितान्वयो वा एकान्तवादिमतेन सम्भवी । - विधिवाक्यस्य च प्रामाण्यनिरासेऽर्थवादादिवाक्यानां प्रामाण्यमपास्तमेव क्रियाङ्गत्वेन तेषां परैः प्रामाण्याभ्युपगमात् अन्यथा तदयोगात् । तदुक्तम् 'आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम्' होता है और उस से अन्ततः वाक्यार्थज्ञान उत्पन्न होता है तो फिर नेत्रादिजन्य रूपादिज्ञान को भी परम्परया गन्धादिज्ञान पर्यवसायी मानना पडेगा । अर्थात् नेत्र से रूपज्ञान और रूपज्ञान से रूपाविनाभावि गन्ध का ज्ञान भी नेत्र से ही हुआ ऐसा मानना होगा । यदि कहा जा परम्परया नेत्र से उत्पन्न रूपज्ञान गन्ध के साक्षात्कारात्मक नहीं होता इस लिये उसे नेत्रजन्य मानने का दोष नहीं है। तो फिर पदजन्य पदार्थज्ञान भी वाक्यार्थावभासी नहीं है इसलिये पदार्थज्ञान को वाक्यार्थपर्यवसायी मानना उचित नहीं होगा । चक्षु में जैसे गन्धग्रहणसामर्थ्य नहीं होता वैसे ही वाक्यार्थ के साथ पदार्थ या पद का सम्बन्ध अज्ञात रहने के कारण पद में भी वाक्यार्थबोध का सामर्थ्य नहीं होता । हाँ, पद से यद्यपि मात्र सामान्यात्मक पदार्थ का बोध हो सकता है किन्तु पदार्थविशेष का अर्थात् वाक्यार्थ का बोध उस से शक्य नहीं है । दूसरी ओर वाक्यार्थ ही विशेषरूप से प्रवृत्ति आदि व्यवहार के सम्पादन में समर्थ होता है न कि संसर्गमात्र । संसर्ग तो अर्थक्रिया करने में सक्षम नहीं होता, अतः उस का ज्ञान भी श्रोता को अपेक्षित नहीं होता । अनपेक्षित संसर्गमात्र अर्थ का प्रतिपादन करने वाला वचन प्रमाणभूत नहीं माना जाता जैसे किसी पागल का प्रलाप । I यह भी नहीं कहा जा सकता कि ‘विशेष के विना सामान्य का रहना असंगत है उस अन्यथानुपपत्ति से पद संसर्गविशेष का बोध करायेगा' - क्योंकि आधारात्मक विशेष के विना सामान्य की अन्यथानुपपत्ति से सामान्यतः आधारात्मक विशेष का यानी पात्र का बोध होने पर भी विशिष्ट प्रकार के धातुपात्रादि आधार का बोध होना सम्भव नहीं है । जैसे 'दूध लाओ' ऐसा आदेश सुननेवाले श्रोता को किसी सामान्य आधार पात्र में दूध को ले जाना यह मालूम पड जाता है किन्तु कौन से आधार में ले जाना ? कुट में या कटोरे में इस का भान नहीं होता है। निष्कर्ष यह है कि एकान्तवादिमत में न तो अन्विताभिधान वाद सही है न अभिहितान्वयवाद । * अर्थवादादि वाक्यों का प्रामाण्य सुदुर्घट विधिवाक्य का प्रामाण्य जब उक्त रीति से गगनपुष्प तुल्य हो गया तो अर्थवादादि वाक्यों का प्रामाण्य तो सुदूर प्रतिक्षिप्त हो जाता है। मीमांसक तो विधिवाक्यसूचित क्रिया के अङ्गरूप में उपयोगी होने से ही अर्थवादादि वाक्यों के प्रामाण्य को गौणरूप से स्वीकार करता है, क्रिया का अंग न हो ऐसे वेदवाक्यों को वह प्रमाण ही नहीं मानता। मीमांसासूत्र में कहा है कि 'आम्नाय यानी वेद का प्रयोजन क्रिया ही है इस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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