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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् यदपि मानसादपचारात् पदश्रवणेऽपि पदार्थानवगमाद् न वाक्यार्थज्ञानं दृष्टमिति पदार्थानामेव वाक्यार्थावबोधकत्वमवसीयते इत्युक्तम् (पृष्ठ - ३३८) तदप्यचारु, विशिष्टपदसमुदायात् कथंचिदभिन्नस्य वाक्यस्यैवानवबोधात्तत्र वाक्यार्थप्रतीत्यनुपपत्तेः, न पुनः पदार्थानवगमात् । न ह्युपहतमनसो वाक्यात्मकपदानां श्रोत्रसम्बन्धमात्रेणावगमः, न चानवगतं स्वरूपेण वाक्यं वाक्यार्थसंबद्धत्वेन वा स्वार्थं प्रतिपादयति अतिप्रसङ्गात् । यदि चोपहतमनाः पदानि शृणोति तदर्थान् किमिति नावधारयति ? अथ परामर्शरूपं तदर्थावधारणं तर्हि पदश्रवणमपि निश्चयात्मकमेवाभ्युपगन्तव्यम् अतदात्मकस्य तच्छ्रवणस्य स्वाप-पद-मूर्छादिष्विव परमार्थतोऽश्रवणरूपत्वात् अविकल्पज्ञानस्याज्ञानरूपतया व्यवस्थापितत्वात् । पूर्वपदानुविद्धं चान्त्यपदं यदा वाक्यम् पूर्वपदानि च स्वाभिधेयविशिष्टतयाऽन्त्यपदप्रतिपत्तिकाले परामृश्यमानानि वाक्यार्थप्रतिपत्तिजनकानि तदा पदार्थानवगमे वाक्यस्यैव स्वार्थाभिसम्बद्धतयाऽनवगमात् कथं ततो वाक्यार्थप्रतिपत्तिर्भवेत् ? ! ३४२ * वाक्य के अनवबोध से वाक्यार्थ अप्रतीति * यह जो पहले कहा गया था कि (पृष्ठ - ३३८) पदों का श्रवण होने पर भी, मानसिक विक्षेप या उपघात के कारण पदार्थों का बोध नहीं होता इसी लिये वाक्यार्थ का ज्ञान भी नहीं होता है, इस लिये पदार्थ ही वाक्यार्थ का बोधक है यह फलित होता है। यह कल्पना गलत है क्योंकि वहाँ वाक्यार्थबोध न होने का कारण पदार्थबोधाभाव नही है किन्तु विशिष्टपदसमूह से कथंचिद् अभिन्न वाक्य का अबोध ही है । अर्थात् मानसिक विक्षेप चल-विचलता के काल में वाक्यश्रवण ही ठीक ढंग से नहीं होता। मानसिक उपघातवाले पुरुष के श्रोत्रेन्द्रिय के साथ वाक्यात्मक पदों का सम्बन्ध होने मात्र से वाक्यबोध नहीं हो जाता। अत एव, स्वरूप से अज्ञात अथवा वाक्यार्थसम्बन्धि के रूप में अज्ञात वाक्य अपने अर्थ के बोध - प्रयोजक नहीं होते । यदि वाक्य के अज्ञात रहने पर भी वाक्यार्थबोध हो जायेगा तो वाक्य न सुननेवाले भी सभी को वह हो जायेगा। यदि कहा जाय कि मानसिक उपघातवाला मनुष्य पदों को ( वाक्य को) नहीं सुनता ऐसा नहीं, सुनता ही है, तब तो यह भी कह सकते हैं कि वह वाक्यार्थ का अवधारण भी करता ही है क्यों नहीं कर सकता ? यदि कहें कि अर्थ का अवधारण तो परामर्शरूप होता है जो कि मानसिक उपघात अवस्था में सम्भव नहीं है तब तो यह भी जान लीजिये कि वाक्यार्थबोधप्रयोजक पदश्रवण भी सुनिश्चितस्वरूप हो तभी वाक्यार्थबोध होता है, मानसिक उपघातावस्था में सुनिश्चित पदश्रवण सम्भव न होने से वाक्यार्थ बोध नहीं होता। अनिश्चयात्मक अनध्यवसायरूप पदश्रवण तो निद्रा, बेहोशी और नशे की अवस्था में भी होता है किन्तु वह परमार्थ से श्रवणरूप ही नहीं होता। पहले भी यह स्थापित किया गया है कि अविकल्पात्मकज्ञान अज्ञानतुल्य ही होता है । यदि ऐसी प्रक्रिया मानी जाय कि पूर्व - पूर्व पदों से संसक्त अन्त्य पद यही वाक्य है, अन्त्य पद के श्रवण काल में अपने अपने अर्थ से विशिष्ट स्वरूप में परामर्शारूढ पूर्वपद ही वाक्यार्थ के बोध के प्रयोजक हैं - ऐसी प्रक्रिया मानने पर तो स्पष्ट है कि पदार्थों का बोध न होने पर, वास्तव में अपने अर्थ से सम्बन्धि के रूप में वाक्य का ही बोध अनुपस्थित है, जब वाक्य ही इस प्रकार विशिष्ट रूप से अज्ञात है तब वाक्यार्थ की प्रतीति कैसे होगी ? तात्पर्य, इस प्रक्रिया में भी वाक्य के अज्ञात होने से ही वाक्यार्थबोध का अभाव सिद्ध होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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