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________________ पञ्चमः खण्डः का० ६३ ३४१ धर्मः' इत्यभ्युपगमव्याघातप्रसक्तेः । न चार्थापत्तिरनुमानाद् विशिष्यते इति प्राक् प्रतिपादितत्वात् । न च प्रमाणान्तरात्मकाः सन्तः पदार्था वाक्यार्थं गमयन्ति, तृतीयविकल्पोक्तदोषप्रसक्तेः । अथ 'पदेभ्यः पदार्थाः तेभ्यश्च वाक्यार्थः प्रतीयते' इति पारम्पर्येण चोदनाया धर्मं प्रति निमित्तता तर्हि श्रोत्रात् पदज्ञानम् ततोऽपि पदार्थविज्ञानम् तस्माच्च धर्मज्ञानम् इति प्रत्यक्षलक्षणोऽर्थः धर्मः प्रसक्तः । अथ साक्षाद् धर्मं प्रति अक्षस्य व्यापाराभावाद् न प्रत्यक्षलक्षणता धर्मस्य । तर्हि चोदनाया अपि साक्षात्तत्र व्यापाराभावाद् न चोदनालक्षणोऽपि धर्मः स्यात् । पदं च पदार्थस्यापि स्मारकत्वाद् न वाचकम्; न च वाक्यार्थे स्मर्यमाणपदार्थसम्बद्धतयाऽविज्ञाते पदार्थस्मरणान्यथानुपपत्त्या प्रतिपत्तिर्युक्ता । न च सम्बन्धो वाक्यार्थेन सह कस्यचिदवगन्तुं शक्यः, सम्बन्ध्यवगमपुरस्सरत्वात् सम्बन्धप्रतिपत्तेः, स्मर्यमाणपदार्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्तिं च विना नान्यतो वाक्यार्थप्रतिपत्तिः तामन्तरेण च नान्यथानुपपत्तेः प्रवृत्तिः - इतीतरेतराश्रयप्रवृत्तेर्न कथंचिद् वाक्यार्थप्रतिपत्तिः स्यात् । सम्बन्धावगममन्तरेणापि पदार्थानां वाक्यार्थावेदकत्वे एकपदार्थसमुदायस्य सर्ववाक्यार्थावेदकत्वप्रसक्तिः । वाक्यार्थबोध होता है, अत एव अनुमान निरवकाश है। `पदार्थ अर्थापत्तिप्रमाण बन कर वाक्यार्थ का प्रकाशक हो यह तीसरा विकल्प भी अयुक्त है, क्योंकि तब अर्थापत्ति ही धर्मात्मक बन जाने से, 'चोदनात्मक पदार्थ धर्म है' इस मान्यता का भंग प्रसक्त होगा । तथा यह पहले कहा जा चुका है कि अर्थापत्ति अनुमान से पृथक् प्रमाण नहीं है, अतः अनुमानविकल्प में कहे गये दोष इस में सावकाश होंगे। यदि अन्य किसी प्रमाण के रूप में पदार्थ वाक्यार्थबोध करावे यह चौथा विकल्प स्वीकार करेंगे तो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि जो तीसरे विकल्प में दोष कहा है कि 'चोदनात्मक पदार्थ धर्म है' इस मान्यता का भंग होगा यह दोष यहाँ भी सावकाश है। * प्रत्यक्ष अर्थ धर्मस्वरूप होने की विपदा - यदि कहा जाय 'चोदनास्वरूप अर्थ धर्म है' इस मान्यता के भंग का प्रसंग नहीं हो सकता क्योंकि चोदना परम्परया धर्म के प्रति निमित्तभूत है। कैसे यह देखिये, पदों से पदार्थ का बोध और पदार्थों से वाक्यार्थबोध होता है' तो ऐसा मानने पर प्रत्यक्षस्वरूप अर्थ (अर्थात् इन्द्रिय) को भी धर्म मानना होगा क्योंकि श्रोत्रेन्द्रिय से पदज्ञान, पदज्ञान से पदार्थविज्ञान और पदार्थज्ञान से धर्म का ज्ञान होता है। यदि कहा जाय कि श्रोत्रेन्द्रिय का धर्म के प्रति साक्षात् योगदान नहीं होता, अतः धर्म प्रत्यक्षरूप यानी इन्द्रियस्वरूप नहीं हो सकता तो प्रतिपक्ष में कह सकते हैं कि चोदना का भी धर्म के प्रति साक्षात् योगदान न होने से चोदना भी धर्मरूप नहीं हो सकती। दूसरी बात, पद तो पदार्थ का स्मारक माना गया है न कि वाचक, जब तक पदज्ञान से स्मरण किये जानेवाले पदार्थों के सम्बन्धि के रूप वाक्यार्थ ज्ञात नहीं हुआ तब तक पदार्थस्मृति की अन्यथानुपपत्ति से वाक्यार्थ की प्रतीति होना असम्भव है । अन्यथानुपपत्ति के लिये सम्बन्धज्ञान आवश्यक है, किन्तु वाक्यार्थ के साथ तो किसी का भी सम्बन्ध ज्ञात हो नहीं सकता क्योंकि सम्बन्ध का ज्ञान सम्बन्धिज्ञानपूर्वक ही हो सकता हैं। इस स्थिति में ऐसा होगा कि स्मरण किये जाने वाले पदार्थों की प्रतीति की अन्यथानुपपत्ति के अलावा और किसी से भी वाक्यार्थ का बोध होगा नहीं और वाक्यार्थबोध के विना अन्यथानुपपत्ति की प्रसिद्धि सम्भव नहीं है इस प्रकार अन्योन्याश्रित हो जाने से वाक्यार्थ की प्रतीति किसी भी तरह हो नहीं सकेगी। यदि सम्बन्ध के अज्ञात रहने पर भी पदार्थों से वाक्यार्थ का बोध हो जाय तो वह विपदा होगी कि किसी भी एक पदार्थवर्ग से समस्त वाक्यार्थों का प्रकाश हो जायेगा, क्योंकि अब सम्बन्ध के अन्वेषण की जरूर ही नहीं है। - Jain Educationa International — For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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