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पञ्चमः खण्डः - का० ६३
३४३ तथाहि - 'गौर्गच्छति' इति वाक्यप्रयोगे गोशब्दात् सामान्यविशेषात्मकं गवार्थं गच्छत्यायन्यतमक्रियासापेक्षं प्राक् प्रतिपद्यते, 'गच्छति' इत्येतस्माच्च तमेव प्रतिनियतगमिक्रियावच्छिन्नमवगच्छति, ततः क्रियाद्यवच्छिन्नः सामान्यविशेषात्मको वाक्यार्थो व्यवतिष्ठते पदसमुदायात्मकाद् वाक्यात् पदार्थात्मकस्यैव तस्य प्रतिपत्तेः। यस्मिन्नुच्चरिते यः प्रतीयते स एव तस्यार्थः इति शाब्दिकानां व्यवहारात् । यश्च शब्दमन्तरेणापि अध्यक्षादेरर्थः प्रतीयते न स शब्दार्थः तेन ‘पश्यतः श्वेतिमारूपम्' (पृ. ३३७) इत्याद्यभिधानं प्रकृतानुपयोग्येव । अतः - __“पदानि हि स्वं स्वमर्थमभिधाय निवृत्तव्यापाराणि, अथेदानी पदार्थाः प्रागवगताः सन्तो वाक्यार्थं गमयन्ति तस्मात् पदेभ्यः पदार्थप्रत्ययः पदार्थेभ्यो वाक्यार्थप्रत्ययः। ___ पदार्थानां तु मूलत्वमिष्टं तद्भावभावतः । पदार्थपूर्वकस्तस्माद् वाक्यार्थोऽयमवस्थितः।। (श्लो० वा० वाक्या० श्लो० १११ उ०-३३६ पू०)" इत्यादि – यत् परैरुक्तम् तदपास्तं भवति, अतो नाभिहितान्वयः ।
नाप्यन्वितानां क्रिया-कारकादीनामेकान्ततोऽभिधानम्, यतः पदार्थः पदार्थान्तरसंसक्त एव यदि पदेनाभिधीयते तदा प्रथमपदेनैव वाक्यार्थस्याभिहितत्वात् शेषपदोच्चारणमनर्थकमासज्येत, पदस्य च
* अभिहित अन्वय-वाद निरसन * कैसे यह देखिये – 'गौः गच्छति = गाय जा रही है' इस वाक्यप्रयोग में गोशब्द से गमनादि किसी एक क्रिया से सापेक्ष सामान्य-विशेषात्मक 'गो' अर्थका पहले ज्ञान होता है। फिर ‘गच्छति' पद से नियत गमनक्रिया से विशिष्ट एक गो का बोध होता है – इस प्रकार क्रियादि से विशिष्ट सामान्यविशेषात्मक ही वाक्यार्थ फलित होता है। पदसमुदायात्मक वाक्य से कथंचित् पदार्थाभिन्न ही वाक्यार्थ की प्रतीति होती है। इस तथ्य में शब्दशास्त्रीओं का यह व्यवहार साक्षिभूत है कि जिस के उच्चार के बाद जो प्रतीत हो वही उस उच्चरित पद का अर्थ होता है। शब्दश्रवण के विना भी प्रत्यक्षादि से जो अर्थप्रतीति होती है वह शब्दार्थ रूप हो ही नहीं सकती क्योंकि वह शब्दजन्य नहीं है, अतः ‘पश्यतः श्वेतिमा रूपम् = श्वेतरूप को देखता हुआ...' (श्वेत अश्व दौड़ रहा है) इत्यादि का शाब्दबोध के रूप में प्रस्तुतीकरण प्रकृत में निष्प्रयोजन है। इसी लिये अभिहितान्वयवादियों ने यह जो कहा है - ___“पदसमूह तो अपने अपने अर्थ का प्रकाशन कर के चरितार्थ हो जाता है, अब तो उन से उपस्थित पदार्थों का समूह ही वाक्यार्थ का प्रकाशन करता है, अतः ‘पदों से पदार्थबोध, पदार्थबोध से वाक्यार्थबोध' यह फलित होता है, जैसे कि श्लोकवार्त्तिक में कहा है कि - "(वाक्यार्थज्ञान के प्रति) पदार्थज्ञान का मूलत्व (कारणत्व) इष्ट है क्योंकि पदार्थों का ज्ञान होने पर वाक्यार्थप्रतीति होती है। इस युक्ति के आधार पर, वाक्यार्थ पदार्थमूलक है यह स्थापित किया जाता है।" ___ अन्य वादियों का यह कथन भी निरस्त हो जाता है। निष्कर्ष, अभिहितान्वयवाद संगत नहीं है।
वाक्यार्थबोध के अधिकरण में मीमांसकों और नैयायिकों का दो परस्पर विरुद्ध मत है। मीमांसक अभिहितान्वयवादी है – उस का कहना है कि शाब्दबोध में पदादि से प्रतिपादित पदार्थों के (न कि पदों के) परस्पर अन्वय से वाक्यार्थ का बोध होता है। इस मत का निरसन व्याख्याकार ने किया है। नैयायिकों का मत है कि संसर्गमर्यादा अर्थात् पदगत आकांक्षा से अन्योन्य अन्वित पदार्थस्वरूप वाक्यार्थ का पदों से प्रकाशन होता है। अब व्याख्याकार इस के प्रतिक्षेप में कहते हैं -
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