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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् यत्र चापचारात् मानसात् श्रृण्वन्नपि पदानि पदार्थान् नावधारयति तत्र न भवति वाक्यार्थप्रत्यय इति व्यतिरेकबलात् पदार्थानां वाक्यार्थावेदकत्वमवसीयते । उक्तं च ( श्लो० वा० वाक्या० श्लो० ३३०३३१) 'भावनैव हि वाक्यार्थः सर्वत्राख्यातवत्तया ।। * अनेकगुणजात्यादिविकारार्थानुरञ्जिता । ' एतेऽप्ययुक्तवादिन एव, पुरुषव्यापारस्य तद्व्यतिरिक्तस्य प्राक् प्रतिषिद्धत्वात् वाक्यार्थानुपपत्तेः । तत्सत्त्वेऽपि यद्यसौ पदार्थादभिन्नस्तदा पदार्थ एव स्यात् न वाक्यार्थः । तथा च कुतः पदार्थगम्यता ? न च पदार्थस्य सामान्यात्मकत्वात् कार्यता, ततो न धर्मरूपता, तथा च प्रत्यक्षादिगोचरत्वात् चोदनायास्तदनुवादकत्वेन तद्विषयत्वेन प्रवर्त्तमानाया न प्रामाण्यं स्यात् इत्युक्तं प्राक् । न च पदानामपि प्रामाण्यं स्मृत्युत्पादकत्वेन भवद्भिरभ्युपगम्यते – 'पदमप्यधिकाभावात् स्मारकान्न विशिष्यते' (श्लो० वा० शब्दप० श्लो० १०७ ) इत्यभिधानात् । तथा च न क्वचिदर्थे शाब्दस्य प्रामाण्यं भवेत् । अथ क्रियाकारकसंसर्गरूपः पदार्थादर्थान्तरं वाक्यार्थः । ननु असावपि यद्यनित्यः तदा कारकसम्पाद्यः पदार्थसम्पाद्यो वा ? न कारकसम्पाद्यः, स्वकृतान्तप्रकोपात् । पदार्थोत्पाद्यत्वेऽपि य एव को सुनने पर भी पदार्थों की उपस्थिति न होने से वाक्यार्थ का बोध नहीं होता है। यह व्यतिरेक सहचार है । इन दोनों से यह फलित होता है कि पदार्थ ही वाक्यार्थ के निवेदक हैं न कि पदसमूह । श्लोकवार्त्तिक में कहा गया है 'अनेक गुण-जाति आदि कारकार्थों से अनुरक्त भावना ही सर्वत्र आख्यात (क्रियापद) विशेषित होने से वाक्यार्थ होती है ।' तात्पर्य यह है कि 'शुक्ल गाय' इत्यादि वाक्यों में भी 'गच्छति' इत्यादि आख्यात का अध्याहार करना ही पडता है इस लिये आख्यातवाच्य भावना ही शुद्ध वाक्यार्थ है, उस में ही अनेक गुणादि अन्य पदार्थो का अन्वय किया जाता है। इस प्रकार अनेक पदार्थों से अन्वित आख्यातार्थ भावना ही वाक्यार्थ है । इस से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्य पदार्थों से अन्वित पदार्थ ही वाक्यार्थ होता है । ३३८ - * एकान्तवाद में पुरुषव्यापारस्वरूप वाक्यार्थ का असंभव * ये पंडित भी अयुक्तवादी हैं क्योंकि एकान्तवादीयों के मत में पुरुष से अतिरिक्त पुरुषव्यापार का पहले ही प्रतिक्षेप किया जा चुका है, अतः पुरुषव्यापार वाक्यार्थरूप हो यह संगत नहीं है । कदाचित् किसी तरह पुरुषव्यापार की सिद्धि कर ली जाय तो वह यदि पदार्थ से अभिन्न होगा तो पदार्थस्वरूप ही हुआ न कि वाक्यार्थरूप, तब वाक्यार्थ पदार्थगम्य है ऐसा कहने का क्या मतलब ? तथा सामान्य को वाच्यार्थ मानने वाले एकान्तवादि के मत में सामान्यात्मक पदार्थ नित्य होने से कार्यरूप नहीं हो सकता। कार्यरूप न होने से वह धर्मरूप भी नहीं हो सकता । उपरांत, सामान्यात्मक नित्य पदार्थ प्रत्यक्षादिगोचर भी हो सकता है। अतः चोदना अन्यप्रमाणाधिगत अर्थ की अनुवादक हो जाने से, तथाविध अर्थ के विषय में प्रवृत्त होने वाली चोदना को प्रमाण नहीं माना जा सकेगा, पहले भी यह बात हो गयी है । दूसरी ओर, आप के मत में पद तो मात्र पदार्थ की स्मृति उपस्थिति कारक होने से ( अधिकग्राही न होने से ) उस को प्रमाण नहीं माना जाता । श्लोकवार्त्तिक में कहा 'आधिक्य न होने से पद भी स्मृतिकारक से पृथग् नहीं है।' अब परिणाम यह होगा कि शाब्द प्रमाण ही लुप्त हो जायेगा क्योंकि पद तो वाचक ही नहीं है । ( सिर्फ स्मारक हैं ।) = है * क्रिया-कारकसंसर्गरूप वाक्यार्थ की आलोचना * यदि कहा जाय वाक्यार्थ और पदार्थ अभिन्न नहीं है, पृथग् है । 'चैत्रः पचति' यहाँ 'चैत्र' पद का * 'दिकारार्था' इति पाठः श्लोकवार्त्तिके । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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