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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६३ ३३७ इत्याद्यसंगतार्थाभिधानम्। ये तु भावनां वाक्यार्थत्वेन प्रतिपादयन्ति - भावना हि भाव्येऽर्थे स्वर्गादिके पुरुषस्य व्यापारः 'भाव्यनिष्ठो भावकव्यापारो भावना' ( ) इति वचनात् । सा च 'किं केन कथम्' इति त्र्यंशपरिपूर्णा – “किम्' ति स्वर्ग 'केन' इति दर्श-पूर्णमास्यादिना भावयन्, 'कथम्' इति इतिकर्त्तव्यतां दर्शयति प्रयोगादिव्यापाररूपाम् । इयमित्थंभूता भावना पदार्थप्रतिपाद्या पदानां वाक्यार्थप्रतिपादने सामर्थ्याभावात् । तानि हि स्वार्थप्रतिपादनमात्रेण निवृत्तव्यापाराणि न वाक्यार्थबोधक्षमाणि, आकांक्षासनिधि-योग्यतावच्छिन्नानां पदार्थानामेवान्वयव्यतिरेकाभ्यां वाक्यार्थवेदकत्वप्रतिपत्तेः। तथाहि - पदश्रवणाभावेऽपि यदा श्वेतगुणं द्रव्यं पश्यति, अश्वजातिं च 'हेषा' शब्दात् अनुमिनोति, क्रियां च खुरविक्षेपादिशब्देन च बुध्यते - तदा 'श्वेतोऽश्वो धावति' इत्यवगच्छति । उक्तं च - ‘पश्यतः श्वेतिमारूपं हेषाशब्दं च श्रृण्वतः। पदविक्षेपशब्दं च श्वेताश्वो धावतीति धीः॥' (श्लो० वा. वाक्या० श्लो० ३५८) वेद के वेत्ताओं का कहना है कि पुरुषार्थ के साधन का बोध विधि को समायत्त है.... इत्यादि – वह भी असंगतार्थ का प्रतिपादन है। * पदार्थप्रतिपाद्य भावना ही वाक्यार्थ - मीमांसक * कुछ पण्डित मानते हैं कि भावना ही वाक्यार्थ है। भावना क्या है ? भाव्य स्वर्गादि अर्थ सम्बन्धी पुरुष का व्यापार ही भावना है। यह शास्त्रवचन है कि 'भावक (पुरुष) का भाव्यनिष्ठ व्यापार भावना है।' यह भावना तीन अंशो में परिपर्ण व्याप्त रहती है - (१) किं = क्या. (२) केन = कौन से साधन से. (३) कथम् = किस प्रकार से ? – यहाँ ‘किं' का उत्तर होगा स्वर्गादि, 'केन' का उत्तर है दर्शपूर्णमासीसंज्ञक यागविशेष से भावना की जाय, और 'कैसे' यह प्रश्न इतिकर्त्तव्यता का प्रश्न है – उत्तर है कि प्रयोग आदि व्यापार स्वरूप इतिकर्त्तव्यता से। ऐसी तीन अंश व्याप्त भावना जो कि वाक्यार्थरूप है उस का प्रतिपादक कौन है - इस प्रश्न का उत्तर अभिहितान्वयवादी देता है, पदार्थों से ही भावना (=वाक्यार्थ) का निरुपण होता है, न कि पदों से। पदों में यह सामर्थ्य ही नहीं है कि वे वाक्यार्थ का बोध करा सके। पद तो अपने अपने अर्थ का (पदार्थ का) बोध करा कर ही चरितार्थ हो जाते हैं, अतः वे वाक्यार्थबोध कराने के लिये सक्षम नहीं होते। पदार्थ ही संनिधि, योग्यता, आकांक्षादि के सहयोग से वाक्यार्थ के प्रतिपादक होते हैं - यह तथ्य अन्वय-व्यतिरेक सहचार बल से ज्ञात होता है। कैसे यह देखिये - * श्वेत अश्व दौडता है - ऐसी बुद्धि का उदाहरण * (पहले अन्वय सहचार प्रदर्शन) पदों का श्रवण नहीं है उस अवस्था में ज्ञाता दूर से आते हुए (अश्व) श्वेतगुणवाले द्रव्य को देखता है, हेषारव सुनाई देता है अतः अश्व जाति का अनुमान हो जाता है और पादनिक्षेपध्वनि से धावन क्रिया का भान हुआ – तब श्वेत गुण रूपे पदार्थ का प्रत्यक्ष से ज्ञान, अश्वजाति का अनुमान से और धावनक्रियारूप पदार्थ की उपस्थिति ध्वनि से हुई – इस प्रकार पदार्थों की उपस्थिति हो जाने पर उन पदार्थों में आकांक्षादि के सहयोग से ज्ञाता को यह बोध हो जाता है जो 'श्वेत अश्व दौडता है' इस वाक्य से भी होता है। श्लोकावार्त्तिक में कहा है कि 'श्वेतरूप को देखने वाले, हेषारव सुननेवाले और खुरनिक्षेप की टॉप को सुनने वाले ज्ञाता को 'श्वेत अश्व दौड रहा है' यह बुद्धि होती है' – यह अन्वय सहचार हुआ। (अब व्यतिरेक सहचार प्रदर्शन) दूसरी ओर, जब मानस अपचार यानी कोई मानसिक विक्षेप रहता है तब पदों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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