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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् च प्रवर्त्तने विधित्वायोगात् । अथ नसम्बद्धभावनायां विधिः प्रवर्त्तयति । न, नार्थसम्बद्धायास्तस्याः अभावरूपत्वेन प्रवृत्तिविषयत्वाऽयोगात् । न च भावनायां हननविशिष्टायां रागात् प्रवर्त्तमानः पुरुषः प्रतिषेधपर्युदस्तायां विधिना नियुज्यते, अभावविशिष्टाया भावनाया विधिविषयत्वऽयोगात् । न चासौ हननाभावविशिष्टा विधिविषयतां प्रतिपद्यते, अमावस्याव्यापाररूपतया भावनां प्रति व्यवच्छेदकत्वाऽयोगात् । न च हन्तिनजुपहितः अभक्ष्याऽस्पर्शनीयन्यायेन हननव्यतिरिक्तधात्वर्थाऽन्तराभिधायकत्वात् तदवच्छिन्नां भावनां प्रकाशयति, सा च विधेर्गोचरतां प्रतिपद्यत - इति वक्तव्यम् यतो भावनायां हननव्यतिरिक्तधात्वर्थमात्रविशिष्टायां विधेः प्रवर्तकत्वमेव न निवर्त्तकत्वम् प्रवर्तकत्वैकरूपत्वेन तस्याऽभ्युपगमात्, तच्च यथा तस्य न सम्भवति तथा प्रतिपादितमेव । तन्न मीमांसकाभिप्रायेण विधेः प्रवर्तकत्वं निवर्त्तकत्वं वा सम्भवति । तेन - _ 'साधने पुरुषार्थस्य संगिरन्ते त्रयीविदः। बोधं विधौ समायत्तम् ......॥ ( से प्रवृत्ति सम्भव है उस में यदि कोई अन्य प्रवर्तक कल्पित किया जाय तो उस में विधित्व संगत नहीं होगा क्योंकि विधि तो अन्यथा अप्रवृत्त का ही प्रवर्तक होना चाहिये। * नसम्बद्ध भावनादि में विधि का प्रवर्तकत्व अयुक्त * यदि कहा जाय कि – विधि अविशिष्ट नञर्थ, भावना और धात्वर्थ प्रत्येक में प्रवर्तक न हो तो कोई हानि नहीं है, नसम्बद्धभावना में अर्थात् निषेधान्वित भावना में प्रवर्तक होगा – तो यह संगत नहीं है, क्योंकि नार्थसम्बद्ध भावना अभावरूप है, अभावरूप होने से वह प्रवृत्ति का विषय ही बन नहीं सकती। यदि कहा जाय – नञर्थविशिष्ट धात्वर्थ में प्रतिषेधविधि पुरुष को प्रवृत्ति करायेगी - तो यह भी असार है क्योंकि धात्वर्थ भी नञर्थविशिष्ट होने पर अभावरूप होने से प्रवृत्ति का गोचर नहीं बन सकता । यदि कहा जाय कि धातुविशिष्ट भावना में पुरुष राग से प्रवृत्ति करने जाता है तब विधि उस को निषेधविशिष्ट भावना की ओर मोड देता है - तो यह भी असंगत है क्योंकि अभी कह आये हैं कि अभावविशिष्ट भावना अभावरूप होने से विधि का विषय नहीं हो सकती, क्योंकि विधि हर हमेश भावस्पर्शी होता है। यही कारण है कि घाताभावविशिष्ट भावना भी विधि-विषय नहीं बन सकती, क्योंकि व्यवच्छेदव्यापारयुक्त हो वही विशेषण हो सकता है, अभाव व्यापारशून्य होने से व्यवच्छेदक नहीं है अतः वह भावना का विशेषण न होने से घाताभावविशिष्ट भावना हो नहीं सकती। __ यदि कहा जाय – 'जैसे अभक्ष्य-अस्पृश्य आदि नञ् से अनुश्लिष्ट शब्द, भक्षण-स्पर्शन का अभाव नहीं किन्तु उन से अतिरिक्त भक्षण-स्पर्शन-अनौचित्यरूप अर्थ का प्रतिपादन करता है वैसे ही नअनुश्लिष्ट हन् धातु भी घात-अतिरिक्त अन्य धात्वर्थ का यानी घात-अनौचित्य का प्रतिपादक होता है और तथाविधधात्वर्थ से विशिष्ट भावना वहाँ प्रकाशित होती है, ऐसी भावना विधि का गोचर हो सकती है।' – तो यह उचित नहीं है, क्योंकि यहाँ विधि घातभावना का निवर्त्तक तो नहीं होगा, होगा तो सिर्फ घातभिन्न धात्वर्थविशिष्ट भावना में प्रवर्तक ही होगा, क्योंकि आप के मत से विधि सिर्फ प्रवर्तक ही है। वह भी सम्भवारूढ तो नहीं है यह पहले बताया हुआ ही है। निष्कर्ष, मीमांसक मत में विधि किसी का भी प्रवर्तक या निवर्त्तक होना सम्भव नहीं है। अत एव “साधने पुरुषार्थस्य...” इत्यादि श्लोक से जो कहा गया है कि - तीन 4. 'बोधविधौ' इति पूर्वमुद्रिते । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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