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________________ ३३० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् मुत्पादयितुमसौ प्रवर्त्तते, आत्मसम्बन्धिताया अपि विद्यमानत्वेन प्रवृत्तिविषयत्वानुपपत्तेः। किञ्च, दुःखविरहसुखस्वभावलक्षणं प्रयोजनमुपजायमानमात्मसम्बन्धितयैवोपजायते इति न तदर्थोऽपि प्रयासः सफलः। न च प्रयोजनमविद्यमानं पुरुषं प्रेरयति अविद्यमानस्य कारकत्वाऽयोगात्। 'कार्यतया तत् तत्र प्रेरयति' इति चेत् ? ननु सापि यदि भावरूपा न तर्हि विद्यमानत्वात् पुरुषप्रवर्तिका भवेत् ! न च विद्यमानस्य कार्यरूपता सम्भवति तस्य कार्यताविरोधात् 'अथाभावरूपा तथापि न प्रेरकत्वम् अभावस्यापि स्वरूपेण विद्यमानत्वात्। न च स्वर्गाभावः पुरुषार्थत्वेनाभ्युपगतः। न च परस्परविविक्तोभयरूपतयाऽपि कार्यतायाः प्रेरकत्वम् उभयदोषानुषङ्गात्, अन्योन्यानुषक्तोभयरूपताऽभ्युपगमे परपक्षाभ्युपगमप्रसक्तिः, फलानुभवपर्यायाऽव्यतिरिक्तस्य कारणपर्यायात्मकस्यात्मनः फलात्मतया परिणामात् कारण-फलपर्याययोः कथंचिदभेदादेकस्यैवात्मद्रव्यस्य तत्तद्रूपतया विवृत्तेः, फलस्य भावाभावरूपतया प्रवर्तकत्वात् अन्यथा सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः। प्रेरणा देता है, किन्तु फिर भी यह प्रश्न सिरदर्द जैसा है कि एकान्त से विद्यमान फल पुरुष को कैसे प्रेरणा करेगा ? जो चीज विद्यमान यानी सिद्ध है – प्राप्त है – उस की प्राप्ति के लिये कोई प्रवृत्ति करता हुआ दिखता नहीं है। कभी प्रयोजन के बदले अन्य कोई प्रेरक हो, फिर भी पुरुष प्रयोजन के उद्देश्य के अलावा प्रवृत्ति नहीं करता। यदि ऐसा कहा जाय कि – (जैसे जम्बूफलादि पूर्वनिष्पन्न होने पर भी उन को अपना करने के लिये, अपने घर में खाने के लिये ला कर रखने के लिये पुरुष की प्रवृत्ति होती है वैसे) प्रयोजन (फल) का अपने (पुरुष के) साथ सम्बन्ध के सम्पादन के लिये प्रवृत्ति हो सकती है - तो यह भी ठीक नहीं है। पुरुष तो आत्मा है जो व्यापक है, किसी भी देश में उत्पन्न (विद्यमान) प्रयोजन के साथ उस का सम्बन्ध अक्षुण्ण है फिर उस के लिये प्रवृत्ति आवश्यक नहीं है। ___यह भी ध्यान में लेना चाहिये कि मुख्य प्रयोजन दुःखनाश और सुखप्राप्ति है और वे जब भी उत्पन्न होते हैं तब आत्मसम्बद्ध ही उत्पन्न होते हैं, जब वह विद्यमान है तो सम्बन्ध भी विद्यमान है, फिर उस के लिये प्रवृत्ति की जाय तो भी वह सफल नहीं होगी। ___ अविद्यमान प्रयोजनवाला विकल्प तो असंगत ही है, क्योंकि अविद्यमान = असत् कभी भी कारक (सम्पादक) नहीं होता अथः अविद्यमान प्रयोजन पुरुष का प्रेरणादाता नहीं हो सकता। यदि कहा जाय – अविद्यमान प्रयोजन भावि कार्य के रुप में अर्थात् कार्यत्व (साध्यत्व) रुप से पुरुष का प्रेरक हो सकता है – तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि वह कार्यता यदि Gभावात्मक यानी विद्यमान है तब तो सिद्ध होने से पुरुष की प्रेरक जो अब विद्यमान ही है उस में कार्यरूपता का होना सम्भव नहीं है क्योंकि विद्यमानता और कार्यता विरुद्ध है। यदि वह कार्यता अभावात्मक असत् है तो भी वह प्रेरक नहीं हो सकती क्योंकि वह कार्यता अभावात्मक रूप से विद्यमान - प्राप्त ही है। अप्राप्त हो तो भी वह प्रेरक नहीं हो सकती क्योंकि स्वर्ग की अभावात्मक कार्यता का अर्थ है स्वर्गाभाव, स्वर्गाभाव कभी पुरुषार्थ यानी पुरुष से अभिलषणीय पदार्थ नहीं है। * परस्पर सापेक्ष भावाभावात्मक कार्यतापक्ष समीचीन * ___ यदि कार्यता को परस्पर निरपेक्ष भावाभाव उभय स्वरूप मान कर उसे प्रेरक बताया जाय तो इस पक्ष में भावपक्षकथित और अभावपक्षकथित दोषों का प्रवेश होगा। यदि परस्पर सापेक्ष अर्थात् अनुषक्त भावाभाव उभय स्वरूप कार्यता मानी जाय तो एकान्तवाद का त्याग और अनेकान्तवाद के स्वीकार की विपदा होगी। अनेकान्तवाद में कारणावस्थानुषक्त आत्मा फलानुभव अवस्था से सर्वथा भिन्न नहीं होता, कारणावस्थ आत्मा सकती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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