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________________ पञ्चमः खण्डः का० ६३ अन्ये तु विधेः प्रवर्त्तकत्वमभ्युपपन्नाः त्रिकालशून्यो विधिरेव प्रवर्त्तकैकस्वभावः लिडोपदिश्यमानः कर्मणि पुरुषं नियोजयति । स च प्रेषणाध्येषणादिव्यतिरिक्तस्तदनुगतश्च गोव्यक्तिषु गोत्ववत् । अध्येषणा = सत्कारपूर्वको नियोगः, प्रेषणा तु न्यत्कारपूर्वको नियोग एव, पुरुषगताशयविशेषः प्रेषणाऽध्ये - षणाशब्दवाच्यः। न चास्य प्रेरकत्वम् व्यभिचारात् । तथाहि - अध्येषणाऽभावेऽपि प्रेषणातः पुरुषप्रवृत्तिरुपलभ्यते तदभावेऽपि चाध्येषणातः पुरुषप्रवृत्तिरुपलभ्यते इति न प्रेषणादेः पुरुषप्रवर्त्तकत्वम्। किन्तु, यथोक्तो विधिर्भाव्यनिष्ठभावकव्यापारस्वभावभावनानुगते स्वर्गादिफलसम्पादके धात्वर्थे पुरुषं नियोजयति । (श्लो० वा० औत्पत्तिक सू० श्लो० १४ ) तदुक्तम् विधावनाश्रिते साध्यः पुरुषार्थो न लभ्यते । श्रुतः स्वर्गादिवाक्येन * धात्वर्थः साध्यतां व्रजेत् ।। ही फलावस्था में परिणत हो जाता है; इस प्रकार कारण अवस्था और कार्य अवस्था में कथंचिद् अभेद होता है । अनेकान्तवाद में एक ही आत्मा - द्रव्य तत् तत् रूप से अन्य अन्य अवस्थाओं में विवर्त्तो में अवतरण करता रहता है। अतः फल भावाभाव उभयरूप होने से अर्थात् कथंचित् सिद्ध और कथंचित् असिद्ध होने से प्रवृत्तिकारक हो सकता है। यदि ऐसा न माना जाय तो विद्यमान - अविद्यमान विकल्पों से सारे जागतिक व्यवहारों की दुर्घटता अर्थात् उच्छेदप्रसंग हो सकता है । * विधि के प्रवर्त्तकत्व सम्बन्ध में द्विविध मत - - अन्य कुछ पंडितो का यह कहना है कि विधि ही प्रवर्त्तक है । लिट् प्रत्यय से जिस का विधान किया जाता है उसे विधि कहते हैं, वह कालत्रय अविशेषित यानी कालत्रयशून्य है और उस का एकमात्र यही स्वभाव है प्रवर्त्तकता । वही पुरुष को क्रिया में प्रवृत्त करता है । वह विधि प्रेषणा या अध्येषणा रूप नहीं है किन्तु उन में अनुगत स्वतन्त्र तत्त्व होता है, जैसे गोत्व समस्त गो से अतिरिक्त किन्तु उन में अनुगत स्वतन्त्र तत्त्व होता है । यहाँ अध्येषणा का मतलब है सत्कार यानी सन्मान के साथ किसी को किसी कार्य में जोडनेवाला व्यापार, जब कि प्रेषणा यानी अनादर के साथ किसी कार्य में जोडनेवाला व्यापार । प्रेषणा और अध्येषणा शब्दों का वाच्य वास्तव में एक प्रकार का पुरुषगत सत्कारादिभावरूप आशय ही है । प्रेषणा और अध्येषणा स्वयं पुरुष का प्रवर्त्तक नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रेषणा के न होने पर अध्येषणा से भी पुरुष की प्रवृत्ति होती है, एवं अध्येषणा के विरह में प्रेषणा से भी पुरुष - प्रवृत्ति होती है, अतः व्यभिचार दोष होगा । इस लिये उन को पुरुषप्रवर्त्तक नहीं मान सकते । किन्तु पूर्वोक्तानुसार उन में अनुगत विधिसंज्ञक तत्त्व ही स्वर्गादिफल सम्पादक यज् आदि धात्वर्थ यागादि, जो कि भाव्य (स्वर्ग अथवा अपूर्व ) निष्ठ यानी भाव्य संबन्धी जो भावक (यानी निष्पादनानुकुल ) कराता है। श्लोकवार्त्तिक में कहा है — व्यापार स्वरूप भावना, उस से अनुगत होता है - में पुरुष को प्रवर्त्तन "यदि विधि का आश्रयण न करे तो पुरुषार्थ (स्वर्गादि) 'साध्य' रूप में प्राप्त नहीं होगा क्योंकि ( विप्रकृष्ट होने से) स्वर्गादि के बाध से धात्वर्थ ( यागादि) ही साध्य बन जायेगा । " तात्पर्य यह है कि विधि के न होने पर समानपदश्रुति से धात्वर्थ ( यागादि) का ही भावनांश मे अन्वय होगा क्योंकि विप्रकृष्ट होने से स्वर्गादि में भावनांश अन्वय बाधित हो जायेगा, फलतः यागादि की इष्टसाधनता चली जायेगी । विधि के रहने पर तो समानप्रत्यय से गृहीत धात्वर्थ से भी अधिक संनिकृष्ट पुरुषप्रवर्त्तनात्मक विधि से अवरुद्ध भावना के बल से धात्वर्थ को लाँघ कर विप्रकृष्ट स्वर्गादि ही भाव्यरूप से गृहीत होगा, और उस के साधनरूप में यागादि भी सिद्ध होगा । इस तरह विधि * श्लोकवार्त्तिके 'श्रुतस्वर्गादिबाधेन' इति पाठः उचितश्च । T Jain Educationa International ३३१ - For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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