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पञ्चमः खण्डः - का० ६३
३२९ आत्मविषयसाध्यतायां पुरुषं प्रेरयितुं समर्थः, प्रेक्षापूर्वकारिणः फलविकले कर्मणि कुतश्चिदप्रवृत्तेः । अपि च, असौ भावः स्वात्मसम्पादनाय पुरुषं प्रेरयन् निष्पन्नः अनिष्पन्नो वा प्रेरयेत् ? 'न तावद् निष्पन्नः तत्सद्भावस्य सिद्धत्वात् । नाप्यनिष्पन्नः अविद्यमानस्याऽतिप्रसंगतः प्रेरकत्वाऽयोगात् । न च सामान्याकारेण विद्यमानो विशेषाकारसम्पादनाय भावः पुरुषं प्रेरयतीति वक्तव्यम् सामान्याकारण विद्यमानतया तस्य साध्यत्वानुपपत्तेः, विद्यमानस्य च वर्त्तमानत्वेन लिडर्थत्वानुपपत्तेः त्रिकालशून्यस्य लिडर्थत्वाभ्युपगमात् विशेषाकारतायाश्च सम्पाद्यत्वेऽपि प्रेरकत्वानुपपत्तेरित्युक्तम् ।
अथ फलापेक्षो भावः स्वात्मसम्पादनाय पुरुष प्रेरयतीत्यभ्युपगमस्तर्हि फलस्यैव प्रेरकत्वम् न भावस्य स्यात्, तथाभ्युपगमेऽपि दोष एव – तत्रापि विद्यमानाऽ'विद्यमानविकल्पद्वयानतिवृत्तेः । तथाहि – यद्यपि सर्वाः क्रियाः प्रयोजनवत्त्वेन व्याप्ता इति तदेव भावसम्पादने पुरुषं प्रेरयति, तथापि तदेकान्ततो विद्यमानं कथं पुरुषं प्रेरयेत् ? न हि यद् यस्यास्ति स तदर्थमेव लोके प्रवर्त्तमानो दृष्टः, प्रयोजनमनुद्दिश्य प्रेरकसद्भावेऽपि कस्यचित् प्रवृत्त्यनुपलब्धेः। न च प्रयोजनस्यात्मसम्बन्धिताके रूप में किया जाता है, न की कर्ता का अभिधान । यह शास्त्रवचन भी है कि 'आख्यात (क्रियापद) पूर्वापरीभूत भाव का ही आख्यान करता है।' (होमादि क्रिया यहाँ 'भाव' शब्द से विवक्षित प्रतीत होती है, क्रिया के प्रारम्भिक-अन्तिम अनेक चरण होते हैं - अत उस में पूर्व-अपर भाव होना सहज है।) "विधि' अर्थ में प्रत्यय लगाते हैं तो वहाँ 'विधि' शब्द का अर्थ यही है कालत्रयनिरपेक्ष साध्य रुप से प्रतीत होनेवाला भाव । वही साध्यात्मक भाव अपनी निष्पत्ति के लिये पुरुष को प्रेरणा करता हुआ लिट् प्रत्ययार्थ कहा जाता है।
यह पंडितकथन भी दुर्घट है, क्योंकि भाव का जब फलनिरपेक्ष और bफलसापेक्ष दो विकल्पों से विवेचन करेंगे तब उस की साध्यता ही संगत नहीं होती। फलनिरपेक्ष भाव साध्य होगा या फलसापेक्ष भाव ? यदि Aपहला विकल्प स्वीकार करें तो वह संगत नहीं होता क्योंकि फलनिरपेक्षभाव स्वविषयकसाध्यता यानी स्वनिष्पत्ति के लिये पुरुष को प्रेरणा देने में सक्षम नहीं होता । बुद्धि पूर्वक कार्य करने वाले सज्जन कभी भी फलशून्य क्रिया में किसी भी प्रकार प्रवत्ति नहीं करते। यह भी सोचना चाहिये कि निष्पन्न भाव स्वनिष्पत्ति के लिये पुरुष को प्रेरणा देगा या अनिष्पन्न भाव ? निष्पन्न भाव तो सिद्ध ही है वह क्या अपनी निष्पत्ति के लिये प्रेरणा करेगा ? जो भाव Dअनिष्पन्न है वह असत् है अविद्यमान है, वह क्या प्रेरणा करेगा ? यदि असत् भी प्रेरणा करेगा तो अश्वसींग भी कहीं कार्यकारी हो बैठेगा।
यदि ऐसा कहा जाय - भाव सामान्याकार से निष्पन्न है, विशेषाकार से अनिष्पन्न हे, अतः सामान्याकार से विद्यमान भाव विशेषाकार की निष्पत्ति के लिये पुरुष को प्रेरणा देगा। - तो यह विधान ठीक नहीं है क्योंकि सामान्याकार से जब वह विद्यमान ही है तब उस में साध्यता नहीं घटेगी। तथा जो विद्यमान यानी वर्त्तमान है वह लिट् प्रत्ययार्थ भी नहीं हो सकता, क्योंकि आप तो लिट् प्रत्ययार्थ को कालत्रयशून्य होने का मानते हैं। फलतः विशेषाकार सम्पाद्य होने पर भी लिट्प्रत्ययार्थ न होने से प्रेरक नहीं बन सकता ।
* फलसापेक्षभाव से पुरुष-प्रेरणा की अशक्यता * दूसरे विकल्प में यदि फलसापेक्ष भाव अपने स्वरूप की सिद्धि के लिये पुरुष को प्रेरणा करता है ऐसा मानेंगे तो यहाँ वास्तविक प्रेरणादाता भाव नहीं किन्तु फल ही कहना चाहिये। फल को प्रेरक मान लेंगे तब तो कोई दोष नहीं ?' – दोष हे, फल Eविद्यमान हो कर प्रेरक होगा या Fअविद्यमान यानी असत् फल प्रेरक होगा ? ये दो विकल्प खडे हैं। स्पष्टरूप से कहें तो यहाँ एकान्तवाद ही सदोष हैं। यद्यपि यह बात ठीक है कि प्रत्येक क्रिया सप्रयोजन होती है, अतः प्रयोजन (फल) ही पुरुष को भावसम्पादन की
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