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________________ ३२८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् एकस्य तात्त्विकविशेषण-विशेष्यरूपताऽसंगतः, अन्यथाऽतिप्रसंगात्, कल्पनारचितस्य तद्रूपत्वस्य सर्वत्राऽविशेषात्, विशिष्ट प्रत्ययोत्पत्तेश्चान्यनिमित्तत्वात्, विरोधादिदोषस्य च तत्र प्रागेव प्रतिविहितत्वात् । एतेन लिडादियुक्तवाक्यजनितविज्ञानस्य प्रवर्तकत्वमेकान्तवादिप्रकल्पितं प्रतिक्षिप्तं तद्भावभावित्वस्याऽन्यथासिद्धत्वप्रतिपादनात् । यदप्यत्र – ( ) संसर्गमोहितधियो विविक्तं धातुगोचरात् । भावात्मानं न पश्यन्ति ये तेभ्यः स विविच्यते ।। इत्यादिना ग्रन्थसंदर्भेण प्रतिपादयन्ति – भाव एव साध्यतया लिडादिभिरभिधीयते न कर्ता 'पूर्वापरीभूतं भावमाख्यातमाचष्टे' ( ) इति वचनाद्; भाव एव च कालत्रयशून्यः साध्यतया प्रतीयमानो विधिरित्यभिधीयते। स चात्मलाभाय प्रेरयन् पुरुषं लिडर्थः इति । तदप्यनुपपन्नम्, भावस्य फलसापेक्षत्व-निरपेक्षत्वविकल्पद्वयेऽपि साध्यत्वानुपपत्तेः। न तावत् फलनिरपेक्षो भावः * एकान्तवाद में विशेषणोपराग की दुर्घटता * कुछ पंडितो का वह कथन अयुक्त है - ____ एकान्तवाद में विशेषण-विशेष्य में अत्यन्त भेद होगा या अभेद ? किसी भी पक्ष में पद या पदार्थों में विशेषण का अनुरञ्जन (एकान्तवाद में) शक्य नहीं है। न तो 'देवदत्त' पद ‘दण्डी' आदि विशेषण पदों से रञ्जित हो सकता है न तो देवदत्त पदार्थ दण्डी आदि पदार्थ से रञ्जित हो सकेगा। फलतः एकान्तवाद में वाक्यार्थ की रचना आदि भी सुसंगत नहीं हो सकती। एकान्तवाद में विशेषण-विशेष्य भाव में एकान्त भेद पक्ष या अभेद पक्ष के संगत न होने से ही, 'देवदत्तः अपाक्षीद् = देवदत्त ने पकाया' इत्यादि प्रयोगों में काल और क्रिया से विशिष्ट देवदत्तादि की प्रतीति भी सुघटित नहीं हो सकती। कारण यह है कि यदि देवदत्त से क्रियादि का एकान्त भेद रहेगा तो दोनों के बीच सम्बन्ध का मेल नहीं बैठेगा, फलतः विशेषण बन कर व्यवच्छेदकता का काम क्रियादि से नहीं होगा। अभेदपक्ष में तो एक ही पदार्थ शेष रहने से कोई तात्त्विक विशेषण-विशेष्यभाव संगत नहीं होगा। यदि एक वस्तु में विशेषण-विशेष्यभाव मानेंगे तो प्रत्येक चीज स्वविशेषण और स्वविशेष्य बन जायेगी, क्योंकि कल्पना से तो विना किसी भेदभाव से सर्वत्र विशेषणता-विशेष्यता की रचना की जा सकती है। एकान्त अभेद इस लिये भी नहीं घट सकता कि सर्वत्र विशिष्ट प्रतीति (कथंचिद्) भेदमूलक ही होती है। कथंचिद् भेदाभेद पक्ष में विरोध की आशंकाओं का प्रतिकार तो कई बार पहले हो चुका है। ___ एकान्तवाद में वैशिष्ट्य की घटना दुर्घट है इसी लिये 'जुहुयात्' इत्यादि लिट् आदि प्रत्ययान्त वाक्यप्रयोगों से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान से स्वर्गार्थी की प्रवृत्ति के सम्पादन की कल्पना भी निरस्त हो जाती है। प्रवृत्ति तो वैसे वाक्यप्रयोगों के ज्ञान के विना भी. एक-दूसरे को देखने से भी होने की प्रबल शक्यता है अतः 'तथाविधज्ञान होने पर ही प्रवृत्ति का होना' यह अन्वय अन्यथासिद्ध है। * लिट् आदि प्रत्ययों से भाव की साध्यता के कथन की समीक्षा * संसर्गमोहित० ...इत्यादि कारिका संदर्भ को लेकर कुछ पंडितोने जो कुछ कहा है वह भी सुसंगत नहीं है। उक्त कारिका में यह कहा गया है कि 'संसर्ग से जिन की बुद्धि मोहग्रस्त हो गयी है, फलतः धातुगोचर अर्थ से भावात्मा को पृथक् नहीं देख सकते, उन लोगों के सामने भावात्मा का विवेचन किया जाता है' - इस कारिकार्थ को ले कर कुछ पंडित कहते हैं – लिट् आदि प्रत्ययान्त पदों से भाव का ही अभिधान साध्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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