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पञ्चमः खण्डः का० ६३
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वच्छिन्नपुरुष एव प्रतीयते तदा 'अग्निहोत्रं जुहुयात्' ग्रामं गच्छ ' 'स्वाध्यायः कर्त्तव्यः' इति लिट्लोट्- कृत्य - प्रयोगेषु कस्यार्थस्य प्रतीतिः ? अत्रापि कर्मणि नियुक्तः क्रियाविशिष्टोऽध्येषणादिविशिष्टश्च देवदत्त एव प्रतीयते, केवलं वर्त्तमानादिः कालो न विशेषणत्वेनात्रावतिष्ठते । अथ यति नात्रार्थातिरेकावगतिर्भावसम्पादने कथं पुरुषः प्रवर्त्तते ? यथा हि देवदत्तः 'पचति' इत्यादिवाक्यान्न प्रवर्त्तते तथा 'जुहुयात्' इत्यस्मादपि नैव प्रवर्त्तेत, प्रवृत्तिनिमित्तस्यानवबोधात् । असत् 'जुहुयात्' इत्यादिवाक्यजनितविज्ञानस्यैव प्रवर्त्तकत्वात् प्रवृत्तेस्तद्भावभावित्वेनोपलम्भात्, तद्वाक्यसमुत्थं ज्ञानं पुरुषं स्वर्गादिसाधने नियोजयदुपलभ्यते न ' पचति' आदिवाक्यसमुत्थम् । तथाहि - विध्यादिवाक्यजनितज्ञानानन्तरमिच्छा, तदनन्तरं प्रयत्नः, तदनन्तरं च पुरुषस्य स्वर्गादिफलार्थः परिस्पन्दः, ततोऽपि फलपर्यन्तात् स्वर्गफलावाप्तिः इत्यभिधानात् ।
तेऽप्ययुक्तकारिणः, एकान्तपक्षे विशेषण - विशेष्ययोरत्यन्तभेदेऽभेदे वा विशेषणानुरागस्य पदपदार्थेष्वसम्भवात् वाक्यार्थकल्पनादेरनुपपत्तेः । अत एव ' अपाक्षीद् देवदत्तः' इत्यादौ न कालक्रियाविशिष्टपुरुषप्रतिपत्तिः, क्रियादेः पुरुषाद् भेदे सम्बन्धाऽसिद्धितो व्यवच्छेदकत्वानुपपत्तेः । अभेदेऽपि ( = ऐकार्थ्य) प्रतीत होता है, न कि अन्य, ( देवदत्त से भिन्न ) कोई पदार्थ ।
'स्वाध्यायः
प्रश्न :- ‘अपाक्षीत्' इत्यादि शब्दों से यदि भूतकालादि से अनुषक्त देवदत्तादि पुरुष ही दृष्टिगोचर होता है तो 'अग्निहोत्रं जुहुयात् = अग्निहोत्र होम किया जाय' 'ग्रामं गच्छ = गाम की ओर जाओ' कर्त्तव्यः = स्वाध्याय करने योग्य है' इन प्रयोगों में लिट् प्रत्ययान्त 'जुहुयात्' शब्द, लोट् प्रत्ययान्त 'गच्छ' प्रयोग और कृत्यप्रत्ययान्त 'कर्त्तव्यः' प्रयोगों में किस अर्थ की प्रतीति मानेंगे ? प्रश्नकार का तात्पर्य यह है कि यहाँ लिट् आदि प्रत्ययान्त का सामानाधिकरण्य कहाँ है ?
उत्तर :- यहाँ भी होम क्रिया में नियुक्त, गमनक्रिया में संलग्न, अध्येषणादि से विशिष्ट देवदत्त की ही प्रतीति होती है। फर्क इतना है कि यहाँ विशेषण के रूप में वर्त्तमानादि काल का बोध नहीं होता ।
प्रश्न :- देवदत्त से अतिरिक्त किसी अर्थ का यदि यहाँ भान नहीं होता तो पुरुष की भावसम्पादन के लिये प्रवृत्ति कैसे होगी ? प्रश्न का तात्पर्य यह है कि 'जुहुयात्' शब्द से यदि ' होम के द्वारा अपूर्व के भावन की प्रेरणा' जैसा कोई अर्थ ही प्रतीत नहीं होता, सिर्फ 'विशिष्ट देवदत्त' ही प्रतीत होता है तो अपूर्वभावन ( = पुण्यनिष्पादन) के लिये होने वाली प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी ? 'देवदत्तः पचति' इस वाक्य जैसे प्रेरणाबोध से प्रवृत्ति नहीं होती वैसे 'जुहुयात्' शब्द से भी प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि प्रवृत्तिनिमित्त अपूर्वभावन की प्रेरणा का यहाँ बोध ही नहीं है।
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उत्तर :- प्रश्न गलत है। लिट् प्रत्ययान्त 'जुहुयात्' आदि वाक्यजन्य बोध ही प्रवर्त्तक बोध है इस में क्या पूछना ? दिखता है कि 'जुहुयात्' इत्यादि शब्दावली का श्रवण होने पर अर्थी श्रोता की प्रवृत्ति होती है। 'जुहुयात्' इत्यादि वाक्यजन्य ज्ञान ही पुरुष को स्वर्गादि की साधना में प्रेरणा करता है न कि 'पचति' आदिवाक्यजन्य ज्ञान यह स्पष्ट देखा गया है । कैसे यह देखिये कहा गया है कि 'विधि' आदि प्रत्ययगर्भितवाक्यजन्य बोध के बाद फल की इच्छावाले को प्रवृत्ति की इच्छा होती है, उस के बाद वह प्रयत्न करता है, प्रयत्न के फलस्वरुप प्रयत्नशील पुरुष में स्वर्गादिफल अनुकुल चेष्टा प्रारम्भ होती है। उस फलपर्यन्तभावि चेष्टा से अन्ततः स्वर्गादिफल की निष्पत्ति होती है ।
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