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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् इति व्युत्पादितोऽनर्थक्रियाकारित्वेन सामान्यमात्रस्य विशेषनिरपेक्षस्य प्रतिपादयितुमनिष्टेः तत्परित्यागेन व्यवहारकाले विशेषमवगच्छति व्यवहारी । न च प्रकृति-प्रत्ययार्थावेवात्र पदार्थ प्रतिपादयतः न पदमिति मन्तव्यम् - __'अशाब्दे वापि वाक्यार्थे न पदार्थेष्वशाब्दता । वाक्यार्थस्येव नैतेषां निमित्तान्तरसम्भवः।।' (श्लो. वा. वाक्या० श्लो०-२३०) इत्यस्य विरोधप्रसक्तेः । न च वाक्यस्य वाक्यार्थे संकेतकरणेऽनुमानात् शाब्दस्याऽविशेषप्रतिपत्तिः, विशेषस्य प्राक्प्रतिपादितत्वात् केवलस्य च पदस्य प्रयोगानहत्वात् वाक्यस्य तु प्रयोगार्हस्य सामान्यानभिधायकत्वात् कथं सामान्यं शब्दार्थः स्यात् ? ___यैस्तु पूर्वपदानुरञ्जितं पदमेव वाक्यम्, पदार्थ एव पदार्थान्तरविशेषितो वाक्यार्थोऽभ्युपगतः। तथाहि - 'दण्डी' 'छत्री' इत्यादिव्यपदेशं यथा पुरुष एव समासादयति नान्यस्तद्व्यतिरिक्तः; तथा 'अपाक्षीत्' 'पचति' ‘पक्ष्यति' इत्याद्यतीतकालाद्यवच्छिन्नः क्रियाविशिष्टश्च देवदत्त एव प्रतीयते – 'अपाक्षीत्' इत्यादिशब्दानां देवदत्तशब्देन सामानाधिकरण्यात् न तु तद्व्यतिरिक्तोऽर्थः। अथ यद्यत्र कालाद्यन होने से उस का प्रतिपादन वक्ता का इष्ट नहीं हो सकता, अतः उस वाक्य से व्यवहारकाल में सामान्य अर्थ का त्याग कर के विशेष का ही ग्रहण करता है। यदि कहा जाय कि – यहाँ प्रकृति-अर्थ और प्रत्ययार्थ ही मिल कर पदार्थ का प्रतिपादन करते हैं न कि पद स्वतन्त्ररूप से - तो ऐसा मानना ठीक नहीं है क्योंकि वाक्यार्थ में भी शाब्दत्व का उपपादन करते हुए श्लोकवार्त्तिक में कहा गया है कि – 'वाक्यार्थ में (कुछ काल तक) अशाब्दत्व मान लेने पर भी पदार्थ में शाब्दबोधत्व का अभाव नहीं है, क्योंकि वाक्यार्थ जैसे अन्य निमित्त (पदार्थ ज्ञान) के बल से सम्भव होता हे, पदार्थ के लिये ऐसा नहीं है।' - इस कथन से पदार्थ में तो शाब्दत्व का स्पष्ट ही अंगीकार किया गया है फिर पद को स्वतन्त्ररूप से पदार्थ का बोधक न माने तो इस श्लोकवार्तिक के विधान के साथ विरोध प्रसक्त होगा। ___यदि यह कहा जाय कि – 'वाक्यार्थ में वाक्य का संकेत मान लिया जाय तो शाब्दबोध और अनुमान में कुछ फर्क नहीं रहेगा' – तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पहले फर्क बताया है कि प्रतिबन्ध का पूर्व में ग्रहण न होने पर भी अपूर्ववाक्य के श्रवण से वाक्यार्थ का भान होता है, अनुमान में पहले प्रतिबन्धग्रहण आवश्यक होता है। अब यहाँ प्रश्न इतना ही है कि कहीं भी स्वतन्त्र पदमात्र का प्रयोग नहीं होता है, प्रयोग होता है वाक्य का, किन्तु वह सामान्य का नहीं विशेष का प्रतिपादन करता है, तब सामान्य को शब्द का वाच्यार्थ कैसे माना जा सकता है ? * पदार्थान्तरविशेषितपदार्थस्वरुपवाक्यार्थप्रदर्शक पूर्वपक्ष * जो कुछ पंडितो का यह मत है - पूर्व-पूर्व पदों से अनुरञ्जित – सहोच्चरित पद ही वाक्य हैं। अन्य अन्य पदार्थ से विशेषित पदार्थ ही वाक्यार्थ है। कैसे यह देखिये – पुरुष ही ‘दण्डवाला' 'छत्रवाला' ऐसे सम्बोधनों को प्राप्त करता है न कि पुरुष से भिन्न कोई अन्य वस्तु । तथैव, 'उसने पकाया था' – 'वह पका रहा है' - 'वह पकायेगा' इन प्रयोगों से भूत-वर्तमान-भाविकाल से अनुषक्त और पाकक्रियाविशेष से सम्बद्भ एक देवदत्त ही प्रतीत होता है, क्योंकि 'अपाक्षीत्' (= वह पकानेवाला था) इत्यादि शब्दों का एक देवदत्त के साथ ही सामानाधिकरण्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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