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________________ पञ्चमः खण्डः का० ६३ ३२५ — निमित्तत्वाभ्युपगमात् निमित्तस्य च निमित्तिनाऽबाध्यत्वात्, अन्यथा तस्य तन्निमित्तत्वाऽयोगात् । अथ प्रागप्येवमयं व्युत्पादितः यत्र पदार्थानामेकद्रव्यसम्भवस्तत्र पदार्थसामान्यत्यागाद् विशेषः प्रतिपत्तव्यः यथा नीलोत्पलादौ । नन्वेवं सर्ववाक्यान्यस्य व्युत्पादितान्येव भवन्ति । तथाहि - यः कश्चित् सम्भवदेकद्रव्यार्थनिवेशः पदसमूहः स संकेतसमयागतसामान्यात्मकावयवार्थपरित्यागतस्तेषामेव विशेषणविशेष्यभावेन विशिष्टार्थगोचरः प्रतिपत्तव्यः, यथा 'नीलोत्पलं पश्य' इत्यादिपदसंघातः, तथा चायम - पूर्ववाक्यात्मकः पदसमुदायः इति संकेतमनुसृत्य यदा ततस्तथाभूतमर्थं प्रत्येति तदा कथं न विशिष्टार्थवाचकं वाक्यम् ? अनेनैव च क्रमेण शब्दविदां समयव्यवहार उपलभ्यते । यथा ‘धात्वादिः क्रियावचनः कर्त्रादिवचनश्च लडादिः' इति समयपूर्वकं प्रकृति-प्रत्ययौ प्रत्ययार्थं सह ब्रूत का बोध होता है वही सामान्य बोध में बाधक है तो यह भी अयुक्तिक है, क्योंकि विशेषरूप से वाक्यार्थबोध के साथ सामान्यबोध को विरोध नहीं है, अपि तु सामान्य और विशेष दोनों एक-दूसरे के सहचर ही होते हैं अतः विशेष वाक्यार्थ बोध के प्रति सामान्य के बोध को निमित्तरूप में स्वीकारना ही होगा, तभी साहचर्य सुरक्षित रहेगा। निमित्ती अर्थात् कार्य कभी निमित्त का यानी निमित्त कारण का बाधक नहीं होता, बाधक होता तो उस का वह निमित्त ही नहीं बनता । यह तो सर्वविदित ही है कि किसी एक वस्तु का सामान्यबोध उस के विशेषबोध में कारण होता है । * वाक्य में विशिष्टार्थवाचकता की सिद्धि यदि कहा जाय ‘“पहले ही पदार्थसामान्य के त्याग का व्युत्पादन किया जा चुका है । सुनिये, जहाँ पदार्थ में एकद्रव्यसम्भव यानी एकाधिकरण्य की सम्भावना होती है वहाँ पदार्थसामान्य का त्याग कर के विशेष का ही स्वीकार किया जाय। उदा० नीलोत्पल आदि । यहाँ नीलसामान्यपदार्थ एवं उत्पलसामान्य पदार्थ में एकाधिकरणता सम्भव होने से सामान्य पदार्थ का त्याग कर के विशेषणविशेष्यभावापन्न नीलोत्पन्न स्वरूप विशेष पदार्थ का स्वीकार किया जाता है" तो यहाँ कहा जा सकता है कि ऐसे सभी वाक्यों का भी व्युत्पादन सम्भव है। कैसे, यह देखिये – जो कोई एकद्रव्यार्थनिवेश के सम्भव वाला पदसमुदाय प्रयुक्त हो, उस पदसमुदाय का (विशिष्ट अर्थ स्वीकार के योग्य है ।), जिस के अवयवों का सामान्यात्मक अर्थ संकेतकाल में निश्चित किया है, उस अर्थ का त्याग कर के, उन अवयवार्थों का ही विशेषण - विशेष्यभाव समझ कर, विशिष्ट अर्थ स्वीकार करना चाहिये। उदा. 'नीलोत्पल को देखिये', इस पदसमुदाय का दर्शनीयत्व विशिष्ट नीलोत्पल ही अर्थ स्वीकार किया गया है । ( उपनय) यह अपूर्ववाक्यात्मक पदसमूह भी सम्भवारूढ एकद्रव्यार्थनिवेशवाला है अतः उसे भी विशिष्टार्थगोचर स्वीकार किया जाय। इस प्रकार, आप के बताये गये व्युत्पत्तिसंकेत का ही अनुसरण कर के श्रोता जब तथाविध विशिष्ट अर्थ का बोध अनुभव करता है तो वाक्य को भी विशिष्टार्थविषयक क्यों न माना जाय ? (यानी सामान्य ही वाच्यार्थ है ऐसा एकान्तवाद डूब जायेगा ।) — * शब्दशास्त्र का व्यवहार * शब्दशास्त्र के पंडितों का शास्त्रीयव्यवहार भी इस ढंग से ही उपलब्ध होता है । व्यवहार - कर्त्ता को इस तरह संकेत दिया जाता है कि धातु आदि पद क्रियावाचक होते हैं और लट्- लिट् आदि प्रत्ययपद कर्तृ आदिवाचक होते हैं। ऐसा संकेत देने के बाद उसे ऐसी व्युत्पत्ति बतायी जाती है कि प्रत्यय स्वतन्त्ररूप से किसी अर्थ का आख्यान नहीं करता किन्तु प्रकृति ( धातु आदि) और प्रत्यय दोनों मिल कर ही प्रत्ययार्थ का आख्यान करते हैं। इस ढंग से व्युत्पन्न बना हुआ व्यवहारी समझता है कि विशेषविनिर्मुक्त सामान्यमात्र अर्थक्रियासम्पादक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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