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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तत्राप्रवृत्तिरित्यनेकशः प्रतिपादितं न पुनरुच्यते । इति व्यवस्थितमेतत् - तथाभूतवस्तुप्रतिपादकमेवाऽऽप्तवचनम्, एकान्तप्रतिपादकं तु नाप्तवचनम् । ___ अथवा एकद्रव्यादन्यद् द्रव्यं 'द्रव्यान्तरम्' तस्मिन् 'नि:सृतं' = सम्बद्धं यत् तदपि प्रतीत्यवचनम् । यथा - दीर्घतरं मध्यमिकाङ्गुलीद्रव्यमपेक्ष्य ह्रस्वतरमङ्गुष्ठकद्रव्यमिति वचः । इस्व-दीर्घादिकस्तु स्वधर्म एव द्रव्यान्तरविशेषाभिव्यंग्यः पितेव पुत्रादिना । ___ यद्वा गोत्वसदृशपरिणतियुक्ताच्छाबलेयद्रव्यात् तत्सदृशपरिणतियुक्तं बाहुलेयादि 'द्रव्यान्तर' तस्मिन् नि:श्रितं = सम्बद्धं वाचकत्वेन 'गौः' इति यद् वचनं तदपि प्रतीत्यवचनम् । न पुनः केवलतिर्यक्सामान्य-विशेष-तद्वद्भयादिप्रतिपादकम् असद्भूतार्थप्रतिपादकत्वाद् उन्मत्तवाक्यवत् ॥३॥ ननु प्रत्युत्पन्नपर्यायस्य स्वकालवदतीताऽनागतकालयोः सत्त्वे अतीताऽनागतकालयोर्वर्त्तमानकाल-- तो यह आशा भी व्यर्थ है क्योंकि बार बार कहा जा चुका है कि पूर्वानुमान की भी प्रवृत्ति उत्तर अनुमानपूर्वक मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष होगा । यदि पूर्वतर अनुमान पूर्वक पूर्वानुमान की प्रवृत्ति मानेंगे तो उस पूर्वतर अनुमान की प्रवृत्ति भी पूर्वतमानुमानपूर्वक... इस प्रकार पूर्व-पूर्व अनुमानपूर्वकत्व की कल्पना का अन्त ही नहीं आयेगा -- इत्यादि दोष होने से अनुमानपूर्वक अनुमानप्रवृत्ति से समवाय की सिद्धि अशक्य है । फिर से इस बात को दोहराने की जरूर नहीं । निष्कर्ष यह फलित होता है कि द्रव्यान्तरनि:सृत अर्थ का प्ररूपक वचन ही आप्तवचन हो सकता है, जो एकान्तवादप्रदर्शक वचन है वह आप्तवचन नहीं हो सकता । * द्रव्यान्तरशब्द की अन्य दो व्याख्या * चतुर्थ पाद की व्याख्या एक अन्य प्रकार से व्याख्याकार प्रस्तुत करते हैं - किसी एक द्रव्य से उस के जैसा किन्तु भिन्न जो अन्य द्रव्य वह द्रव्यान्तर है, ऐसे द्रव्यान्तर का सम्बन्धि वचन यही प्रतीत्यवचन है । उदा० मध्यमिका ऊँगली अंगूठे से लम्बी है जब कि उस की अपेक्षा अंगूठा द्रव्य छोटा है -- यह प्रतीत्यवचन है । ह्रस्वता और दीर्घता ये अंगूठ आदि द्रव्यों के अपने ही धर्म हैं किन्तु इनकी सही अभिव्यक्ति विशिष्ट द्रव्यान्तर के सापेक्ष होती है। जैसे पितृत्व आदि पिता का अपना धर्म है किन्तु वह पुत्रादि से अभिव्यक्त होता है । अथवा अन्य एक प्रकार से चतुर्थपाद की व्याख्या इस तरह है - द्रव्यान्तर यानी सदृशपरिणतिवाला अन्य द्रव्य । शबला और बहुला इन दो गायों में गोत्वरूप से परिणामसादृश्य है इसलिये शबल गौद्रव्य की अपेक्षा बहुला गौ द्रव्यान्तर कही जायेगी । यहाँ गोत्वरूप से समानपरिणति को नजर में रख कर इस द्रव्यान्तर के लिये जो 'गाय' ऐसा वचनप्रयोग किया जाता है वह प्रतीत्यवचन है । तात्पर्य यह है कि स्वतन्त्र तिर्यक् सामान्य गोत्वादि अथवा शबलत्वादि स्वतन्त्र विशेष (एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न) का निरूपण करने वाला जो 'गाय' ऐसा वचन है वह प्रतीत्यवचन नहीं है । तथा स्वतन्त्र गोत्व से विशिष्ट अथवा स्वतन्त्र शबलत्व से विशिष्ट अथवा स्वतन्त्र तदुभय से विशिष्ट द्रव्य के लिये जो 'गाय' शब्द का प्रतिपादन किया जाय तो वह भी प्रतीत्यवचन नहीं है । कारण, उन्मत्तपुरुष के प्रलाप की तरह ये भी असद्भूत स्वतन्त्र सामान्य-विशेष के प्रतिपादन करनेवाले हैं । प्रतीत्य वचन तो गोत्वरूपसदृशपरिणति से अनुविद्ध, एवं शबलत्वरूप विशेष अथवा बहुलात्वरूप विशेष से अभेदभाव से आलिंगित, द्रव्यान्तर का निरूपण करता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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