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पञ्चमः खण्डः - का० ३ कार्योत्पत्तौ कारणस्याप्युत्पत्तिप्रसक्त्तिः, अन्यथाऽयुतसिद्ध्यनुपपत्तेः ।। ___ अथाऽयुताश्रयसमवायित्वमयुतसिद्धिः, सा च कार्योत्पत्तौ कारणानुत्पत्तावपि भवत्येव । न, समवायाऽसिद्धावयुतसिद्ध्यसिद्धेः । न चायुतसिद्धित एव समवायसिद्धिः, इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । न चाध्यक्षतः समवायसिद्धेर्नायं दोषः, तन्त्वात्मकपटप्रतिभासमन्तरेणाध्यक्षप्रतिपत्तावपरसमवायाप्रतीतेः । 'इह तन्तुषु पटः' इत्यत्रापि प्रत्यये ‘इह तन्तुषु' इति प्रतिपत्तिस्तन्त्वालम्बना, ‘पटः' इति प्रतिपत्तिः पटालम्बना संवेद्यत इति नापरः समवायप्रतिभासः । न च 'इह तन्तुषु पटः' इति लौकिकी प्रतिपत्तिः किन्तु ‘पटे तन्तवः' इति । न चान्यथाभूतप्रतिपत्त्याऽन्यथाभूतार्थव्यवस्था । न चानुमानादपि समवायप्रसिद्धिः, प्रत्यक्षाभावे तत्पूर्वकस्य तस्य तत्राऽप्रवृत्तेः । अनुमानपूर्वकस्य तु तस्यानवस्थादिदोषाघ्रातत्वात् ऐसा मानेंगे तो कार्य-कारण में सर्वथा भेद या पृथग् उपलब्धि का दोष नहीं होगा' – तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि कारण-कार्य की युतसिद्धि (= असंश्लिष्टता) और अयुतसिद्धि (= संश्लिष्टता) इन दो विकल्पों में से एक को तो मानना ही पडेगा, यदि युतसिद्धि मानेंगे तो कुण्ड और बदरीफल की भाँति उन दोनों की पृथग् उपलब्धि बरबस प्रसक्त होगी । यदि अयुतसिद्धि मानेंगे तो यही कथंचिद् अभेदरूप होने से कार्य उत्पन्न होने पर कथंचिद् कारण भी उत्पन्न होने की बात फलित हो जाती है, क्योंकि इस के विना अयुतसिद्धि यानी प्रगाढ संश्लिष्टता (अपार्थक्य) घट नहीं सकती । (जहाँ प्रगाढ मैत्रीसम्बन्ध होता है वहाँ एक के दुःख से दूसरा भी दु:खी होता है ।)
* समवायगर्भित अयुतसिद्धि का निरसन * नैयायिक :- अयुतसिद्धि का मतलब कथंचिद् अभेद नहीं है । उसका मतलब है समवाय सम्बन्ध से अयुत यानी अपृथग्भूत आश्रय में रहना । अयुत आश्रय में वृत्ति होने से कार्य की कारण से पृथग् उपलब्धि का दोषप्रसंग नहीं होगा । तथा कार्य उत्पन्न होते समय कारण की उत्पत्ति न मानने पर भी समवाय से अपृथग् आश्रय में वृत्तित्वरूप अयुतसिद्धि घट सकती है ।
जैन :- यह निवेदन अयुक्त है क्योंकि समवाय ही सिद्ध नहीं है तो वैसी. अयुतसिद्धि कैसे प्रसिद्ध हो सकेगी ? यदि कहें कि - अयुतसिद्धि से ही समवाय सिद्ध होगा तो यह अयुक्त है क्योंकि एक दूसरे के आधार पर एक दूसरे की सिद्धि मानने में अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त्त होगा । यदि इस दोष को टालने के लिये प्रत्यक्ष को ही समवायसाधक कह दिया जाय तो वह भी अयुक्त है, क्योंकि प्रत्यक्ष में सिर्फ तन्तुमय पट का दर्शन होता है, उसके अतिरिक्त किसी समवायात्मक सम्बन्ध का दर्शन नहीं होता । 'यहाँ तन्तुओं में वस्त्र है' इस प्रतीति में भी समवाय दृष्टिगोचर नहीं है, क्योंकि 'यहाँ तन्तुओं में' इस रूप में तन्तु दृष्टिगोचर होते हैं और 'वस्त्र है' इस रूप में वस्त्र ही दृष्टिगोचर होता है, किन्तु उन से अतिरिक्त समवाय का कुछ भी आभास नहीं होता । वास्तव में तो जनसाधारण को 'वस्त्र में तन्तु हैं। ऐसा ही अनुभव होता है न कि 'तन्तुओं में वस्त्र है' ऐसा । एक प्रकार की प्रतीति से दूसरे प्रकार के अर्थ को सिद्ध करने वाली व्यवस्था कहीं देखी नहीं।
___ अनुमान से समवाय की सिद्धि की आशा करना व्यर्थ है, क्योंकि अनुमानप्रवृत्ति प्रत्यक्षपूर्वक ही होती है, समवाय जब प्रत्यक्षसिद्ध ही नहीं है तो तत्पूर्वक अनुमान भी समवायसिद्धि के लिये प्रवृत्त नहीं हो सकता । यदि कहें – 'प्रत्यक्षपूर्वक अनुमानप्रवृत्ति न होने पर भी अनुमानपूर्वक अनुमानप्रवृत्ति से समवायसिद्धि हो सकेगी'
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