________________
३२२
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् यात् तदा गुणवद्वक्तृप्रयुक्तत्वेनाऽस्य प्रामाण्यमतश्च गुणवद्वक्तृप्रयुक्तत्वमितीतरेतराश्रयदोषोऽपि नात्रावकाशं लभते यथोक्तसंवादादस्य प्रामाण्यनिश्चये । 'कुतोऽयमस्यात्र संवादः' इत्यपेक्षायाम् 'आप्तप्रणीतत्वात्' इत्यवगमो न पुनः प्रथममेव तत्प्रणीतत्वनिश्चयादस्यार्थप्रतिपादकत्वम् प्रतिबन्धनिश्चयादनुमानस्येव । नापि दृष्टविषयाऽविसंवादिवाक्यैकवाक्यतां विरहय्यादृष्टार्थवाक्यैकदेशस्यान्यतः कुतश्चित् प्राक्संवादित्वनिबन्धनस्य प्रामाण्यस्य निश्चयः अभ्यासावस्थायां तु आप्तप्रणीतत्वनिश्चयात् प्रवृत्तिरदृष्टार्थवाक्यान्न वार्यत इति कुत इतरेतराश्रयावकाशः ?
* विकल्पचतुष्टयेनैकान्तवादे वाक्यार्थासम्भवप्रदर्शनम् * एकान्तवादिवाक्यात् तु दृष्टार्थेऽपि विसंवादिनः सर्वथाऽप्रवृत्तिरेव । निश्चितविसंवादाङ्कल्यग्रहस्तियूथशतप्रतिपादकवाक्यादिवद् न ह्येकान्तवादिवचनानां वाच्यं सम्भवीत्युक्तम् । यतः सामान्यं वा तद्वाच्यं भवेत् Bविशेषो वा ? 'उभयम् अनुभयं वेति विकल्पाः। ___-न तावत् “सामान्यम् तस्येतरव्यावृत्तप्रतिनियतैकवस्तुरूपत्वाऽयोगात् शब्दवाच्यत्वे घटाद्यानयनाय भेद ही विच्छेद पा जायेगा।
परोक्ष विषय में दृष्टविषयसंवादि-एकवाक्यतारूप युक्ति से शाब्दबोध में प्रामाण्य का स्वीकार किया गया है इस लिये निम्नोक्त अन्योन्याश्रय दोष को अवकाश नहीं है। गुणवद्वक्ताभाषितत्व होने पर प्रामाण्य की सिद्धि और प्रामाण्य सिद्ध होने पर गणवदवक्ताभाषितत्व की सिद्धि यह अन्योन्याश्रय दोष नहीं है क्योंकि रीति से संवाद और संवादि-एकवाक्यता के आधार पर ही आप्तवचनस्वरूप आगम में प्रामाण्य का निश्चय हो जाता है। 'अदृष्ट विषय में आगम का संवाद कैसे उपलब्ध होगा' ऐसा यदि प्रश्न किया जाय तो उस के उत्तर में कह सकते हैं कि आप्तरचना होने से संवाद का अवबोध होता है। ऐसा नहीं है कि पहले से ही आप्तरचना के निश्चय से आगम का प्रामाण्य कहा जाय, जैसे व्याप्तिस्वरूप प्रतिबन्ध के निश्चय से अनुमान का प्रामाण्य नहीं कहा जाता। अनुमान का प्रामाण्य अर्थसंवाद के बल पर ही कहा जाता है। जब पूछा जाय कि यह अनुमान क्यों अर्थसंवादी है तब उत्तर में कहा जा सकता है कि सुनिश्चित व्याप्ति होने से ही वह संवादी है, यहाँ कोई अन्योन्याश्रय दोष नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि - दृष्टविषयसंवादिवाक्य-एकवाक्यता को उपेक्षित कर के अदृष्टार्थविषयक वाक्य स्वरूप एक खंड में किसी अन्य तत्त्व के आधार पर पूर्वभागसंवादितामूलक प्रामाण्य का निश्चय किया जाता हो; एसा किया जाता तब तो उस अन्य तत्त्व का प्रामाण्य और अदृष्टार्थविषयकवाक्य के प्रामाण्य में अन्योन्याश्रय दोष हो सकता था। हाँ, कभी कभी संवाद के बोध विना भी अत्यन्त सु-अभ्यस्त दशा में आप्त रचना के निश्चय से ही अदृष्टार्थवाक्य में प्रामाण्य का भान और उस से प्रवृत्ति हो जाना सम्भव है, फिर भी यहाँ अन्योन्याश्रय दोष को अवकाश नहीं है।
* वाक्य के वाच्यार्थ पर विकल्प-चतुष्टय * एकान्तवादियों के वाक्यों से सफल प्रवृत्ति का सम्भव ही नहीं है, क्योंकि वे दृष्ट अर्थ के बारे में भी संवादी नहीं होते। “ऊँगली की नोक पर सो हाथी नाचते हैं' इस वाक्य की तरह एकान्तवादियों के वाक्य में भी विसंवाद सुनिश्चित है। वास्तव में पहले ही कहा है कि एकान्तवादियों के वाक्य का कोई वास्तविक वाच्यार्थ ही नहीं होता। यदि वे वाच्यार्थ को मानते हैं तो किस को ? – Aसामान्य को ?, Bविशेष को ?,
उभय को ? या अनुभय को ? - ये चार विकल्प हैं। 2. पृष्ठ ३४६ पर्यन्तमयं विकल्पोऽनुवय॑मानो विभावनीयः ।
For Personal and Private Use Only
Jain Educationa International
www.jainelibrary.org