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पञ्चमः खण्डः - का० ६० तस्मात् परिणामिजीवाजीवपदार्थद्वयाऽव्यतिरिक्तौ कथंचित् सकारणौ हेयोपादेयरूपौ बन्धमोक्षौ प्रतिपत्तव्याविति सप्त पदार्थाः प्रमाणतोऽभ्युपगन्तव्याः। ___ यथा च संवर-निर्जरयोर्मोक्षहेतुता आस्रवस्य च बन्धनिमित्तत्वं तथाऽऽगमात् प्रतिपत्तव्यम् तस्य च जीवाजीवादिलक्षणे दृष्टविषये वस्तुतत्त्वे सर्वदाऽविसंवादाददृष्टविषयेऽपि एकवाक्यतया प्रवर्त्तमानस्य प्रामाण्यं प्रतिपत्तव्यम् । न च वक्त्रधीनत्वात् तस्याऽप्रामाण्यम् वक्त्रधीनत्वप्रमाणत्वयोर्विरोधाभावात् । वक्त्रधीनस्यापि प्रत्यक्षस्य प्रामाण्योपलब्धेः । न चाक्षजत्वाद् वस्तुप्रतिबद्धत्वेन तत्र प्रामाण्यम् न शाब्दस्य विपर्ययादिति वक्तव्यम्, शाब्दस्य अत एव प्रमाणान्तरत्वोपपत्तेः, अन्यथाऽनुमानादविशेषप्रसङ्गात् । तथाहि – गुणवद्वक्तृप्रयुक्तशब्दप्रभवत्वादेव शाब्दमनुमानज्ञानाद् विशिष्यते अन्यथा बाह्यार्थप्रतिबन्धस्यात्रापि सद्भावाद् नानुमानादस्य विशेषः स्यात् । यदा च परोक्षेऽपि विषयेऽस्य प्रामाण्यमुक्तन्यानहीं होता। अतः जीव और अजीव के स्वरूप को जानना अति जरूरी है। जीव और अजीव दोनों परिणमनशील ही मानना उचित है, अन्यथा वे आस्रव के हेतुरूप में परिणत ही नहीं होंगे। एकान्त नित्य पदार्थ या एकान्त अनित्य पदार्थ अर्थक्रिया के संपादन में समर्थ नहीं हो सकते, अतः वे सत् भी नहीं हो सकते।
निष्कर्ष :- परिणामी जीव और अजीव के युगल से कथंचित् अव्यतिरिक्त बन्ध और मोक्ष को, उन के क्रमशः आस्रव एवं संवर-निर्जरा स्वरूप हेतुओं के साथ जानना और स्वीकारना चाहिये । उन में भी बन्ध
और उस का हेतु आस्रव हेय है, मोक्ष एवं उस के हेतु संवर-निर्जरा उपादेय हैं यह भी समझना चाहिये । इस प्रकार प्रमाण के आधार पर सात पदार्थों का स्वीकार अवश्य करना चाहिये।
* बन्ध और मोक्ष के हेतु आगम-गम्य * प्रश्न :- संवर और निर्जरा मोक्ष के हेतु हैं, बन्ध का हेतु आश्रव है - यह कैसे जाना जाय ?
उत्तर :- केवलज्ञानी प्रकाशित आगमों की सहायता से अच्छी तरह उक्त तथ्यों को जान सकते हैं। सर्वज्ञ का आगम दृष्टिगोचर जीव-अजीव तत्त्वों के साथ सदा अविसंवादी रहा है, दृष्टपदार्थप्रकाशक और अदृष्टार्थप्रकाशक पूरा आगम एक है, एकवाक्यता से अनुषक्त है, इस लिये अदृष्ट पदार्थो के विषय में भी उस के प्रामाण्य का स्वीकार बेझीझक करना चाहिये। ___ यदि यह कहा जाय कि – वक्ता को सापेक्ष होने से वह आगम अप्रमाण है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वक्तृत्व सापेक्षता और प्रामाण्य में परस्परविरोध नहीं है। देखते हैं कि कभी आकाश में दुज के चाँद आदि पदार्थों का प्रत्यक्षबोध किसी वक्ता के कहने से होता है फिर भी वह प्रत्यक्षबोध प्रमाण ही होता है. अप्रमाण नहीं। यदि कहा जाय - प्रत्यक्षबोध वक्तसापेक्ष होने पर भी इन्द्रियजन्य होने से वस्तस्पी होता है इस लिये प्रमाणभूत होगा, किन्तु शाब्दबोध वैसा नहीं बल्कि उस से उल्टा होने से प्रमाण नहीं माना जा सकता – तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियजन्य न होने के कारण प्रत्यक्ष से उलटा होने पर भी वह वस्तुस्पर्शी होने से प्रमाण ही होता है और वक्तृसापेक्ष होने के जरिये ही वह अनुमान से अतिरिक्त स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में सुसंगत हो सकता है। यदि वक्तृसापेक्ष नहीं होता तो शाब्दबोध वस्तुप्रतिबद्ध होने के कारण अनुमान में ही अन्तर्भूत हो जाता, स्वतन्त्र प्रमाण नहीं होता। अनुमान से उस की भिन्नता का हेतु यह है कि प्रमाणभूत शाब्दबोध, यथार्थज्ञान एवं अवञ्चकबुद्धि आदि गुणों से विभूषित वक्ता के उच्चारित शब्दों से उत्पन्न होता है, अनुमान ऐसा नहीं होता। सिर्फ बाह्यार्थ के सम्बन्धमात्र से अगर शाब्दबोध को प्रमाण माना जाता, तब तो वह बाह्यार्थसम्बन्ध अनुमान में भी मौजूद होने से अनुमान से शाब्द प्रमाण का
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