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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
ह्यनवगतसस्यादिसद्भावस्तदर्थी तत्प्राप्त्युपाये कृष्यादौ प्रवर्त्तितुमुत्सहते । तदुपायप्रवृत्तिरप्युपायस्वरूपसंवरनिर्जरालक्षणपदार्थद्वयप्रतिपत्तिमन्तरेणानुपपन्ना, अज्ञातस्य प्रेक्षापूर्वकारिप्रवृत्तिविषयत्वानुपपत्तेः ।
तथाहि – अशेषकर्मवियोगलक्षणो मोक्षः संवर- निर्जराफलः तदभावेऽनुपपद्यमानस्तत्प्रवृत्तिं तज्ज्ञानपूर्विकामाक्षिपति । न हि अभिनवकर्मोत्पत्तौ प्राक्तनाशेषकर्मसंयोगाभावो भावे वाऽऽत्यन्तिकः तद्वियोगः सम्भवतीति संवर - निर्जराज्ञानं मुमुक्षुभिरवश्यं विधातव्यम् । कर्मबन्धोऽपि संवर - निर्जरानिवर्त्तनीयः संसारसरित्स्रोतः प्रवर्त्तको ज्ञातव्यः अज्ञातस्योपायनिवर्त्तनीयत्वायोगात् । अयमपि आस्रवफलत्वेन ज्ञातव्योऽन्यथा तदनुत्पत्तेः । यथा हि घटादेः स्नेहाभावे रजः सम्बन्धो न घटते तथा कषायस्नेहाभावे नात्मनः कर्मरजः सम्बन्ध उपपत्तिमान् । आस्रवोऽपि बन्धहेतुर्जीवाजीवकारणतया ज्ञातव्यः, अन्यथाकारणस्य तस्याऽसम्भवात् । न हि अज्ञातकारणं तत्कार्यतया शाल्यङ्कुरादिवज् ज्ञातुं शक्यम् । न च जीवाजीवबहिर्भूतमास्रवस्य कारणं भवति तद्व्यतिरेकेण पदार्थान्तरस्याऽसत्त्वात् । जीवाजीवयोश्च परिणामित्वे सति आस्रवादिहेतुत्वम्, एकान्तनित्यस्यानित्यस्य वार्थक्रियाऽनिर्वर्त्तकत्वेनासत्त्वात् । अनेक सज्जनों की मोक्षार्थक प्रवृत्ति दिखाई देती है जो मोक्ष तत्त्व के अस्तित्व के विना घट नहीं सकती । धान्य का अर्थी धान्य के स्वरूप को समझे विना धान्य की प्राप्ति के लिये उस के उपायभूत कृषिकर्म की कष्टमय प्रवृत्ति करने के लिये उत्साहित नहीं होता । मोक्ष के उपायों में प्रवृत्ति भी संवर - निर्जरा स्वरूप दो पदार्थ को समझे बिना नहीं हो सकती क्योंकि ये दो पदार्थ ही मुक्ति के उपाय हैं । अज्ञात उपाय, किसी भी बुद्धिपूर्वक कार्य करने वाली व्यक्ति की प्रवृत्ति का विषय कभी भी नहीं हो सकता ।
* मोक्ष के लिये आवश्यक संवरादि तत्त्वों का ज्ञान
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स्पष्ट सुनिये ! सकल कर्मों का वियोग यह मोक्ष है जो संवर और निर्जरा के मिलन का फल है । संवरनिर्जरा के विरह में मोक्ष होना असम्भव है अतः उस के लिये ज्ञानपूर्वक संवर निर्जरा में प्रवृत्ति आवश्यक हो जाती है । पूर्वबद्ध समस्त कर्मों के संयोग का अभाव (मोक्ष) तभी हो सकता है जब कि नूतन कर्म का बन्ध रुक जाय। उस के विना यद्यपि पूर्वबद्ध सकल कर्मों का वियोग होगा, फिर भी नूतन कर्मों का बन्ध जारी रहने से आत्यन्तिक कर्मवियोग सम्भव नहीं होगा, अतः निर्जरा के साथ संवर तत्त्व भी उपादेय है । अत एव मुमुक्षुओं को संवर और निर्जरा दोनों तत्त्वों का ज्ञानसम्पादन करना आवश्यक है । संसारदुःखसरिताप्रवाह को बहते रखनेवाला कर्मबन्ध भी संवर और निर्जरातत्त्व से रुक सकता है, अत एव बन्ध तत्त्व का परिचय (ज्ञान) भी आवश्यक है, क्योंकि उस को जाने विना उस के निवर्त्तक उपाय से उस की निवृत्ति भी सम्भव नहीं है । कर्मबन्ध आस्रव का फल है इसलिये आस्रव का ज्ञान भी कर्मबन्ध को रोकने के लिये अनिवार्य है, उस के विना कर्मबन्ध को रोकना असम्भव है । यह ध्यान में रहना चाहिये कि जैसे चिकनाई के बिना रजोमल से घटादि अवगुण्ठित नहीं होता वैसे ही कषायात्मक चिकनाई के विना आत्मा भी कर्मरजोमल से अवगुण्ठित नहीं हो सकता। कषाय ही मुख्य आस्रव है और आस्रव कर्मबन्ध का हेतु है अतः उस को विशेषरूप से जानना चाहिये कि जीव और अजीव दोनों की मिलीभगत से आस्रवकार्य निष्पन्न होता है। यदि जीव - अजीव को आस्रव का कारण नहीं मानेंगे तो उस का अस्तित्व ही लुप्त हो बैठेगा । जैसे शालीबीज का ज्ञान न होने पर उस के कार्य के रूप में शाल्यंकुर का ज्ञान हो नहीं सकता, वैसे ही जीव और अजीव तत्त्वों का ज्ञान न होने पर उन के कार्य के रूप में आस्रव का ज्ञान भी नहीं हो सकता । जीव - अजीव को छोड कर और तो कोई आस्रव का कारण होना सम्भव नहीं है, क्योंकि जीव - अजीव युगल से बहिर्भूत किसी वस्तु का अस्तित्व ही
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