________________
पञ्चमः खण्डः - का० ६३ ९-३) इत्याप्तागमतश्चाऽस्मदादिभिः प्रतीयते सर्वकर्मनिर्जरावद्भिस्तु स्वसंवेदनाध्यक्षतः परमपदप्राप्तिहेतोः सम्यग्ज्ञानादेः स्वसंविदितत्वात् सर्वकर्मापगमाविर्भूतचैतन्यसुखस्वभावात्मस्वरूपस्य मोक्षस्याप्यनन्तरोक्तन्यायतः प्रतिपत्तिः। ____ तथाहि – 'यदुत्कर्षतारतम्याद् यस्यापचयतारतम्यम् तत्प्रकर्षनिष्ठा-गमने भवति तस्यात्यन्तिकः क्षयः । यथोष्णस्पर्शतारतम्यात् शीतस्पर्शस्य । भवति च ज्ञानवैराग्यादेरुत्कर्षतारतम्यादज्ञानरागादेरपचयतारतम्यम्' इत्यनुमानतः भगवदागमतश्चास्मदादेरपवर्गसिद्धिः भगवतां तु केवलाध्यक्षतः। इति जीवाजीवपदार्थद्वयाऽव्यतिरिक्तास्रवादिप्रतिपत्तिर्मुमुक्षुभिर्विधेया। तथाहि - मोक्षार्थिभिरवश्यं मोक्षः प्रमाणतः प्रतिपत्तव्योऽन्यथा तदुपायप्रवृत्त्यनुपपत्तेः। न
* संवर-निर्जरा-मोक्ष तत्त्वों की प्रमाणतः सिद्धि * संवर पदार्थ की सिद्धि प्रत्यक्ष-अनुमान-आगम तीनों प्रमाण से न्यायपूर्ण ढंग से हो सकती है। आश्रवनिरोधस्वरूप संवर समिति-गुप्ति-धर्मानुप्रेक्षाधर्मध्यानात्मक जीवपरिणामस्वरूप है और यह जीव परिणाम हमारी आत्मा में संयमध्यानादिरूप से प्रत्यक्ष स्वानुभवसिद्ध है। अन्य आत्मा में, संवरजन्य उपशमभावादि कार्य लिंग से संवर का अनुमान किया जा सकता है। 'संवर आस्रवनिरोधरूप है' इस अर्थ के प्रतिपादक तत्त्वार्थसूत्ररूप आगम से भी संवर पदार्थ सिद्ध है।
निर्जरा पदार्थ की सिद्धि हमारे प्रत्यक्ष से नहीं तो अनुमान से हो सकती है। ज्ञानावरणीयादि कर्मों की निर्जरा (क्षय) के विना केवलज्ञान की सत्ता ही सिद्ध नहीं हो सकती, अतः केवलज्ञानात्मक कार्यलिंग से निर्जरा का अनुमान हो सकता है। 'तप से निर्जरा भी होती है। ऐसे अर्थवाले तत्त्वार्थसूत्ररूप आप्तरचित आगम से भी निर्जरा सिद्ध होती है। सर्व कर्मों की निर्जरा कर देने वाले महात्माओं को अपने स्वप्रकाश प्रत्यक्ष से ही निर्जरा पदार्थ सिद्ध है। तथा उन महात्माओं को परमपद मोक्ष की प्राप्ति के हेतु सम्यग्ज्ञानादि स्वप्रकाशानुभवसिद्ध होने से मोक्ष उन के लिये प्रत्यक्षसिद्ध है। पूर्वोक्त न्याय से मोक्ष अनुमानसिद्ध भी है, क्योंकि सकल कर्मों के क्षय से आविर्भूत शुद्ध चैतन्यमय सुखस्वभाव आत्मा ही मोक्ष का स्वरूप है। उस के लिये अनमान-प्रयोग को सुनिये -
“जिस वस्तु का तरतमभाव से उत्कर्ष होने पर, तरतमभाव से जिस पदार्थ का अपकर्ष होता है, उस वस्तु का उत्कर्ष जब चरम सीमा को प्राप्त होता है तब वह पदार्थ सर्वथा क्षीण हो जाता है। उदा० जल को उबालते समय उष्णस्पर्श के तरतमभाव से शीत स्पर्श में तारतम्य होता है तो सीमाप्रकर्ष को प्राप्त उष्ण स्पर्श से शीत स्पर्श का सर्वथा नाश हो जाता है। यहाँ भी. ज्ञान और वैराग्य आदि के उत्कर्ष के तारतम्य से अज्ञान और रागादि के अपकर्ष का तरतमभाव होता है, अतः ज्ञान और वैराग्य के चरमोत्कर्ष से अज्ञान
और रागादि का सम्पूर्ण क्षय (यानी सम्पूर्ण चैतन्यसुखस्वभावरूप मोक्ष) हो सकता है।" इस प्रकार हमारे लिये अनुमान से, एवं भगवविरचित आगम से भी मोक्ष की सिद्धि होती है। भगवान् को तो खुद अपने केवलज्ञानप्रत्यक्ष से मोक्ष सिद्ध है। ___ उपरोक्त नीति अनुसार मुमुक्षु महात्मा जीवाजीवयुगल से कथंचिद् अभिन्न आस्रवादि पदार्थों का स्वीकार करें।
मोक्ष का अर्थी हो उसे मुमुक्षु कहा जाता है। ऐसे मुमुक्षुओं का मुख्य कर्त्तव्य है कि प्रमाण के आधार पर मोक्ष तत्त्व का अंगीकार करना। मोक्ष तत्त्व के स्वीकार के विना उस के उपायों का अनुसरण दुर्घट है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org