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________________ ३१८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् हेतुत्वानुपपत्तेः। न ह्यभ्यन्तरीकृतचैतन्यप्रयोजनस्याकाशद्रव्यादेर्वाग्-बुद्धि-शरीरारम्भादिनिरपेक्षपरमाणुजन्यता परस्यापि सिद्धा। अतः तृष्णानुबद्धस्य चैतन्यस्य मनो-वाक्-कायव्यापारवतः कर्मवर्गणापुद्गलसचिवस्य कार्मणशरीरानुविद्धस्य तथाविधतच्छरीरनिर्वर्त्तकत्वम् – अन्यथा तथाविधकारणप्रभवतच्छरीराभावे आत्मनो बन्धाभावतः संसारिसत्त्वविकलं जगत् स्यादेव । तीर्थान्तरीयैरप्यातिवाहिकादिशब्दवाच्यतयाऽभ्युपगम्यमानं कार्मणशरीरं सकलदृष्टपदार्थाऽविसंवाद्यर्हदुक्तागमप्रतिपाद्यमवश्यमभ्युपगन्तव्यमन्यथा सकलदृष्टादृष्टव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः। न चाचेतनस्य तस्य कथं भवान्तरप्रापकत्वम् ? चेतनाधिष्ठितस्याचेतनस्यापि देवदत्तव्यापारप्रयुक्त देशान्तरप्रापणशक्तिमन्नौद्रव्यवदचेतनस्यापि तत्प्रापक - त्वाऽविरोधात् । न च सदा चैतन्यानुषक्तस्य तस्याचेतनव्यपदेशयोगितेति प्राक् प्रतिपादितत्वात् । तदेवमनुमानागमाभ्यां बन्धस्य प्रसिद्धिः। संवरस्य तु अध्यक्षानुमानागमप्रसिद्धता न्यायानुगतैव, चैतन्यपरिणतेः स्वात्मनि स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धत्वात् अन्यत्र तु तत्प्रभवकार्यानुमेयत्वात् आगमस्य च तत्प्रतिपादकस्य प्रदर्शितत्वात् । निर्जरा तु ज्ञानावरणीयादेः कर्मणः केवलज्ञानसद्भावान्यथानुपपत्त्यानुमानतः 'तपसा निर्जरा च' (त० सू० से होता है वैसे सूक्ष्मकार्मणशरीर का निर्माण भी आस्रवनिरपेक्ष परमाणुद्रव्यों से क्यों नहीं हो सकता ? ____ उत्तरपक्ष :- यह कल्पना ठीक नहीं है। कारण, जो द्रव्य चैतन्य के लिये कुछ उपयोगी होता है वह या तो परमाणु-अजन्य होता है या तो आस्रवसापेक्षपरमाणुजन्य होता है किन्तु आस्रवनिरपेक्षपरमाणुजन्य कभी नहीं होता। उदा. आकाशादि द्रव्य, जैन मत में चैतन्य को अवगाहप्रदान के लिये और नैयायिक के मत में श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में, उपयोगि होता है - यह आस्रवनिरपेक्ष अर्थात् मन-वचन-शरीरक्रियानिरपेक्ष परमाणुजन्य नहीं होता। नैयायिकादि मत में भी उक्त नियम मान्य है। अतः तृष्णा-बन्धन से बद्ध चैतन्य का प्रयोजन सिद्ध करने वाला स्थूल औदारिकादिशरीर का निर्माण ऐसे कर्मपुद्गलसमूह से ही होगा जो कार्मणशरीरानुविद्ध हो और आस्रवात्मक मन-वचन-शरीर क्रिया से अनुषक्त हो। यदि आस्रवसापेक्षकारणजन्य शरीर का स्वीकार नहीं करेंगे तो आत्मा का बन्ध भी सिद्ध नहीं होगा और सारा जगत् संसारी (बद्ध) जीवों से शून्य हो जायेगा। ___अन्य दार्शनिकवर्ग भी 'अतिवाहिक' आदि शब्दों का जो प्रयोग करते हैं उस का वाच्यार्थ कार्मणशरीर ही मानना चाहिये, क्योंकि उस का प्रतिपादन ऐसे आगम में किया गया है जो अरिहन्त-सर्वज्ञ कथित है और दृष्ट सकल पदार्थों से अविसंवादी है। ऐसे महिमाशाली आगम प्रतिपादित वस्तु को न स्वीकारने पर दृष्ट-अदृष्ट वस्तुसम्बन्धि सकल व्यवहारों का विच्छेद प्रसक्त होगा। प्रश्न :- कर्म या कार्मण शरीर तो अचेतन है वह जीव को भवान्तर में गतिकारक कैसे हो सकता है ? उत्तर :- अचेतनद्रव्य भी चेतन से अधिष्ठित होने पर चेतनद्रव्य की तरह गतिकारक बन सकता है जैसे देवदत्तनाम के नाविक से अधिष्ठित अचेतन नौकाद्रव्य एक तट से दूसरे तट की और सफर करवाता है वैसे चेतनाधिष्ठित अचेतनद्रव्य भी देशान्तरप्रापक होने में कोई विरोध नहीं है। तथा, कार्मणशरीर तो चैतन्य के साथ सदा के लिये अनुषक्त ही रहता है जब तक मुक्ति न हो। अतः उसे अचेतन कहना भी मुनासिब नहीं है। स्थूल शरीर भी जब तक जीवित रहता है तब तक उसे मुर्दा या अचेतन नहीं कह जाता। पहले इस तथ्य का निरूपण हो चुका है। इस चर्चा का सार यह है कि आगम और अनुगम प्रमाण से बन्धपदार्थ प्रसिद्धिप्राप्त है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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