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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६३ आत्मनश्च सकलज्ञेयज्ञानस्वभावता स्वविषयाऽप्रवृत्तिश्च छद्मस्थावस्थायां प्राक् प्रदर्शितैव। औदारिकाद्यशेषशरीरनिबन्धनस्यानेकाऽवान्तरभेदभिन्नाऽष्टविधकर्मात्मकस्य कार्मणशरीरस्य सर्वज्ञप्रणीतागमात् सिद्धेः कथं न ततो बन्धसिद्धिः ? न च कार्मणशरीरस्य मूर्त्तिमत्त्वात् सत्त्वे उपलब्धिः स्याद्, अनुपलम्भाच्च तदसदिति वाच्यम् । यतो न सर्वं मूर्त्तिमदुपलभ्यते सौक्ष्म्यात् पिशाचादिशरीरस्येवौदारिकादिशरीरनिमित्ततयोपकल्पितस्यानुपलम्भेऽपि अपह्नोतुमशक्यत्वात् । कथमनुपलभ्यमानस्यास्तित्वं तस्येति चेत् ? न, आप्तवादात् तस्य सिद्धेः । न च तदभावे औदारिकाद्यपूर्वशरीरयोग आत्मनः स्यात् । न हि रज्ज्वाकाशयोरिव मूर्त्तामूर्तयोर्बन्धविशेषयोगः, कार्मणशरीराऽविनाभूतश्चामुक्तेः सदात्मा इति तस्य कथंचिन्मूर्त्तत्वम् ततश्चौदारिकशरीरसम्बन्धो रज्जु-घटयोरिवोपपत्तिमान् । अथ सूक्ष्मशरीरसिद्धावप्यास्रवनिरपेक्षाः परमाणवो वाय्वादिसूक्ष्मद्रव्यनिमित्तपरमाणुद्रव्यवद् भविष्यन्तीति न बन्धहेत्वासवसिद्धिः। नैतद्, क्रोडीकृतचैतन्यप्रयोजनस्याऽचेनस्यास्रवनिरपेक्षपरमाणुकि वस्तुसत् पुद्गलस्वरूप है और ज्ञानावरणादि उस के भेद हैं। ‘आत्मा सकलज्ञेयविषयकज्ञानस्वरूप' ही है और फिर भी छद्मस्थावस्था में अपने सकल ग्राह्य विषयों में उस की प्रवृत्ति नहीं होती- ये दो तथ्य पहले स्पष्ट किये जा चुके हैं, इस लिये हेतु की असिद्धि की आशंका निरवकाश है। आगम से तो बन्धसिद्धि स्पष्ट ही है, क्योंकि सर्वज्ञप्रकाशित आगमों में कार्मणशरीर का स्पष्ट उल्लेख आता है। यह कार्मणशरीर ही औदारिक, वैक्रिय आदि समस्त शरीर धारण का मूल हेतु है और वह दूसरा कुछ नहीं, अनेक अवान्तर भेदवाले आठ प्रकार के कर्मों का समूह ही है। जब कार्मण शरीर है तो आत्मा के साथ कर्म का बन्ध हुये बिना यह कैसे घटेगा ? शरीर और आत्मा तो परस्परबद्ध ही होते हैं। ऐसा कहना कि 'मूर्तिमन्त होने के हेतु से कार्मणशरीर यदि सत् है तो उस की उपलब्धि होनी चाहिये, किन्तु नहीं होती अतः वह असत् है' - यह ठीक नहीं है क्योंकि मूर्तिमन्त के साथ उपलब्धि की व्याप्ति नहीं है जिस से कि मूर्तिमन्त सर्व वस्तु उपलब्ध हो सके। सूक्ष्म होने के कारण मूर्तिमन्त पदार्थ सत् होने पर भी उपलब्ध नहीं होता जैसे कि पिशाचादि का शरीर। उसी तरह औदारिकादिशरीर के मूल हेतु के रूप में अनुमानित कार्मण शरीर का उपलम्भ न होने मात्र से अपलाप नहीं हो सकता। यदि कहा जाय कि - "जिस का उपलम्भ ही नहीं है उस का अस्तित्व कैसे माना जाय – तो इस प्रश्न का समाधान है कि आप्तप्रवाद यानी विश्वसनीय अर्हत् सर्वज्ञ प्रकाशित वचन प्रमाणभूत होने से, उन के आधार पर कार्मणशरीर की सिद्धि निर्बाध है। यदि उसे नहीं मानेंगे तो यहाँ स्थूल औदारिकादि नूतन शरीर के साथ आत्मा का संयोग ही सिद्ध नहीं हो सकेगा। मर्त्त और अमर्त्त का रज और आकाश की तरह बन्धविशेषात्मक संयोग होना असम्भव है, अतः मुक्ति न हो तब तक सदैव आत्मा को अनादिकाल से कार्मणशरीर सम्बन्ध मानना ही होगा, तभी उस के योग से आत्मा में कथंचिद् मूर्त्तत्व प्रसिद्ध होगा और बाद में रज्जू और घट में जैसे बन्धविशेषात्मक संयोग दृष्ट है वैसे आत्मा और स्थूल औदारिकादि शरीर का योग संगत हो सकेगा। * आस्रव की सिद्धि में आक्षेप-समाधान * प्रतिपक्षी :- कर्मपरमाणुओं के बन्ध के हेतुरूप में आस्रवसिद्धि की आशा नहीं की जा सकती। सूक्ष्मशरीर की कैसे भी सिद्धि हो सकती है। जैसे वायु आदि सूक्ष्म द्रव्य का (स्कन्ध का) निर्माण उन के परमाणुद्रव्यों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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