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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् विगतप्राणापानप्रचाराशेषकायवाग्-मनोयोगसर्व-देशपरिस्पन्दत्वाद् विगतक्रियानिवर्त्ति इत्युच्यते । तत्र च सर्वबन्धास्रवनिरोधोऽशेषकर्मपरिक्षयसामोपपत्तेः। तदेव च निःशेषभवदुःखविटपिदावानलकल्पं साक्षाद् मोक्षकारणम् । तद्ध्यानवांश्चायोगिकेवली निःशेषितमलकलङ्कोऽवाप्तशुद्धनिजस्वभाव ऊर्ध्वगतिपरिणामस्वाभाव्यात् निवातप्रदेशप्रदीपशिखावदूर्ध्वं गच्छत्येकसमयेनालोकान्तात् विनिर्मुक्ताशेषबन्धनस्य प्राप्तनिजस्वरूपस्यात्मनो लोकान्तेऽवस्थानं मोक्षः ‘बन्धवियोगो मोक्षः' ( ) इति वचनात् । अत्र च जीवाजीवयोरागमादिवाध्यक्षानुमानतोऽपि सिद्धिः प्रदर्शिता, आस्रवस्यापि तथैव । कर्मयोग्यपुद्गलात्मप्रदेशानां परस्परानुप्रवेशस्वभावस्य तु बन्धस्यानुपलब्धावप्यध्यक्षतः, अनुमानात् प्रतिपत्तिः । तथाहि – अशेषज्ञेयस्वभावस्यात्मनः स्वविषयेऽप्रवृत्तिर्विशिष्टद्रव्यसम्बन्धनिमित्ता, पीतहृत्पूरपुरुषस्वविषयज्ञानाऽप्रवृत्तिवत् । यच्च ज्ञानस्य स्वविषयप्रतिबन्धकं द्रव्यं तद् ज्ञानावरणादि वस्तुसत् पुद्गलरूपं कर्म । वाला तथा ऊर्ध्वाध आयत १४ राज लोक प्रमाण दंड आत्मप्रदेशों का बनता है। दूसरे समय में उस दंड को तिरछे विकसित कर के कपाट बनता है। तीसरे समय में उस कपाट को दोनों ओर लोकान्त तक फैला कर मन्थनदण्ड बनता है। चौथे समय में अवशिष्ट निष्कूटों को भर कर आत्मा संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। तब आयुष्य स्थिति से अधिकस्थितिवाले सभी कर्म-पुद्गलों की निर्जरा हो जाती है, समस्थितिवाले कर्म शेष रहते हैं। पुनः मन्थनदण्ड-कपाट-दण्ड के क्रम से उपसंहार कर के आत्मा को शरीरावस्थित कर देते हैं। यहाँ शुक्लध्यान का तीसरा भेद समाप्त हो जाता है। बाद में चौथा शुक्लध्यान आरम्भ होता है। उस का नाम 'विगतक्रियानिवर्ती' है। इस ध्यानभेद में श्वासोच्छ्वास का प्रचार सर्वथा रुक जाता है। तथा मन वचन काया की स्थूल-सूक्ष्म समग्र क्रिया भी रुक जाती है इसलिये यह विगतक्रिय० कहा जाता है। यहाँ योगनिरोध के साथ समग्र आस्रव और बन्ध का भी सम्पूर्ण निरोध हो जाता है और उस के प्रभाव से सकल कर्मों को क्षीण कर देने वाला आत्मसामर्थ्य प्रगट होता है। यह श्रेष्ठ ध्यानभेद है क्योंकि समग्र भवदुःखों के वृक्षों के जंगल को भस्मीभूत कर देने वाला दावानल है और यही साक्षात् विना विलम्ब मुक्ति का कारण है। इस ध्यानावस्था में योगक्रिया रुक जाने से अयोगी केवली कहा जाता है। चरम समय में सकल कर्मकलङक को दग्ध कर के शद्ध आत्मस्वभाव में आरूढ आत्मा एक समयमात्र में लोकान्त तक ऊर्ध्व गति करता है। जैसे निर्वातप्रदेश में निहित दीपक की ज्वाला स्वभावतः ऊर्ध्वगति करती है वैसे ही शुद्धस्वभाववाले आत्मा का भी सहज ऊर्ध्वगति परिणाम प्रगट होने से उस की गति ऊर्ध्वदिशा में ही होती है। सकल कर्मबन्धनों से मुक्त आत्मा निजस्वरूप प्राप्त कर के लोकाग्र भाग में जा कर स्थिर हो जाता है यही मोक्ष - अंतिम तत्त्व है। शास्त्रकारों का यह वचन है ‘बन्ध का वियोग मोक्ष है।' * आस्रव एवं बन्ध तत्त्वों का साधक प्रमाण * व्याख्याकार कहते हैं कि इस व्याख्या ग्रन्थ में पहले जीव और अजीव की सिद्धि आगमप्रमाण की तरह प्रत्यक्ष और अनुमान से की जा चुकी है। उसी तरह आस्रव की सिद्धि भी आगम की तरह प्रत्यक्ष और अनुमानप्रमाण से समझ लेना चाहिये। आत्मप्रदेश और कर्मपरिणतियोग्य पुद्गलद्रव्य का परस्परानुषङ्गात्मक बन्ध यद्यपि प्रत्यक्ष से उपलब्ध नहीं है फिर भी अनुमान से उपलब्धि गोचर हो सकता है। कैसे यह देखियेसमस्त ज्ञेय वस्तु के ज्ञान से ओतप्रोत आत्मा की अपने ग्राह्य विषयों में जो अप्रवृत्ति है वह विशिष्ट अन्यद्रव्यसम्बन्धमूलक होती है; जैसे धत्तूरकपानकारक पुरुष की स्वग्राह्यविषयों में प्रवृत्ति का विरह, मदिरा द्रव्य के सम्बन्ध से प्रयुक्त होता है। यहाँ जो ज्ञान का प्रतिबन्धक द्रव्य सिद्ध होता है उस का नाम कर्म है जो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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