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________________ पञ्चमः खण्डः का० ६३ दयति प्रायः पूर्वविदेव । तदनन्तरं ध्यानान्तरे वर्त्तमानः क्षायिकज्ञानदर्शन- चारित्र - वीर्यातिशयसम्पत्समन्वितो भगवान् केवली जायत इति । स चात्यन्ताऽपुनर्भवसम्पदङ्गनासमालिङ्गिततनुः कृतकृत्योऽचिन्त्य - ज्ञानाद्यैश्वर्यमाहात्म्यातिशयपरमभक्तिनम्रामरेश्वरादिवन्द्यचरणोऽन्तर्मुहूर्तं देशोनां वा पूर्वकोटिं भवोपग्राहिकर्मवशाद् विहरन् यदाऽन्तर्मुहूर्त्तपरिशेषायुष्कस्तत्तुल्यस्थितिनामगोत्रवेदनीयश्च भवति तदा मनोवाग्बादरकाययोगं निरुध्य सूक्ष्मकाययोगोपगः सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति शुक्लध्यानं तृतीयमध्यास्ते । यदा पुनरन्तर्मुहूर्त्तस्थितिकायुष्क-कर्माधिकतरस्थितिशेषकर्मत्रयो भवत्यसौ तदाऽऽयुष्ककर्मस्थितिसमानस्थितिशेषकर्मसम्पादनार्थं समुद्धातमाश्रित्य दण्ड- कपाट - मन्थ - लोकापूरणानि स्वात्मप्रदेशविस्तरणतश्चतुर्भिः समयैर्विधाय तावद्भिरेव तैः पुनस्तानुपसंहृत्य स्वप्रदेशविस्तरणसमीकृतभवोपग्राहिकर्मा स्वशरीर - परिमाणो भूत्वा ततः तृतीयं शुक्लध्यानभेदं परिसमापय्य पुनश्चतुर्थं शुक्लध्यानमारभते तत् पुनज्ञानावरण - दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घाती कर्मो का विच्छेद कर देता है । वह ध्यान १२ वें गुणस्थानक में अपनी भूमिका का निर्वाह करता है, निष्कषाय छद्मस्थ वीतराग अर्थात् क्षीणमोह यह १२ वाँ गुणस्थानक है । उपशमक यानी उपशमश्रेणिआरूढ महात्मा इस का ध्याता नहीं होता किन्तु मोहनीयक्षय करनेवाला क्षपक महात्मा ही इस का ध्याता होता है, जो प्रायः १४ पूर्वों का ज्ञाता होता है। दूसरे शुक्लध्यान का ध्याता जब उस ध्यान को पूर्ण कर के आगे ध्यानान्तरदशा में आरोहण करता है तब वह भगवान् केवलज्ञानी हो जाता है जिस के पास क्षायिकज्ञान, क्षायिक सम्यग्दर्शन और क्षायिक चारित्र तथा क्षायिक वीर्य (पराक्रमशक्ति) का वैभव झगमगाता है । Jain Educationa International - : तृतीय शुक्लध्यान जिस में पुनः जन्मधारण की कडाकूट नहीं रहती ऐसी अजरामरस्थिति यानी अत्यन्त अपुनर्भवस्थिति यह एक विशाल सम्पत्ति है, इस सम्पत्तिरूप अंगना से सदा आश्लिष्ट केवली भगवान् अब कर्त्तव्यशेष न रहने से कृतकृत्य हो जाते हैं । केवलज्ञान एक अचिन्त्य महिमाशाली ऐश्वर्य है, ऐसे सातिशय ऐश्वर्यधारक केवली भगवंत के चरणों में विनम्र बन कर इन्द्र आदि देवता परमभक्ति से वन्दन करते हैं । केवलज्ञानप्राप्ति के बाद केवलज्ञानी का भवोपग्राही कर्म यानी आयुष्य आदि कर्म किसी को तो सिर्फ अन्तर्मुहूर्त ही न्यूनतमकाल शेष रहता है जब कि किसी को यदि एक पूर्व क्रोड वर्षों आयुष्य हो और नवमें वर्ष में केवलज्ञान हो गया हो तो नववर्षन्यून एक क्रोड पूर्व वर्ष शेष रहता है। उतने वर्षों तक अधिकतम काल तक ये महात्मा धरतीतल को पावन करते हुए विचरतें है । जब उन का आयुष्य कर्म सिर्फ अन्तर्मुहूर्त्त ही अवशेष रहता है तब जिन की नामकर्म - गोत्रकर्म और वेदनीय कर्म की कालस्थिति आयुष्यतुल्य ही होती हैं वे महात्मा मन-वचन-स्थूल-काया के योगों का अत्यन्त निरोध कर देते हैं, सिर्फ सूक्ष्म काया की क्रियाएँ अनुषक्त यानी अप्रतिपाती रहती हैं । तब इस स्थिति में वह तीसरे सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ध्यान में आरूढ कहे जाते हैं । * केवलिसमुद्घातप्रक्रिया एवं चतुर्थ शुक्लध्यान केवली भगवंत की आयुष्य स्थिति से अन्य कर्मों की स्थिति यदि अधिक होती है तो उन कर्मों की आयुष्य समस्थिति करने के लिये उन का ह्रास करते हैं, उस को समुद्घात कहा जाता है। समुद्घातप्रक्रिया में केवलज्ञानी महात्मा अपने आत्मप्रदेशों को समग्र लोकाकाश में फैला देते हैं। लोकाकाश और आत्मा के, अविभाज्य अवयवात्मक प्रदेशों की संख्या समान है, इसलिये समुद्घात में एक एक लोकाकाशप्रदेश पर एक एक आत्मप्रदेश व्याप्त हो जाते हैं । उस की प्रक्रिया यह है प्रथम समय में शरीर समान चौडाई १ पूर्व । ऐसे क्रोड पूर्व वर्ष । * ८४ लाख x ८४ लाख = ७०५६० अब्ज = ३१५ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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