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________________ ३१४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् भेदात् स्वर्गापवर्गफलप्रदमायं शुक्लध्यानमवलम्बते । ____एतच्च निर्जरात्मकमात्मस्थितकर्मक्षयकारणत्वात् तस्याः ‘तपसा निर्जरा च' (त० सू० ९-३) इति वचनाद् ध्यानस्य चान्तरोत्कृष्टतपोरूपत्वाद् । जीवाजीवाभ्यां कथंचिदसावभिन्ना द्व्यङ्गुलवियोगवत् वियुक्तात्मनो वियोगस्य कथंचिद् अभेदात् । एकान्तवादे तु पूर्ववत् पश्चादपि अवियोगोऽतद्धर्मत्वात् वियोगे वा पूर्वमपि तत्स्वभावत्वादयुक्तस्य वियोगाभाव एव । न हि बन्धाभावे तद्विनाशः सम्भवी तस्य वस्तुधर्मत्वात् । न हि अङ्गुल्योः संयोगाभावे तद्वियोग इति व्यवहारः। तस्माद् निर्जराया अप्येकान्तवादेऽनुपपत्तिः।। ____एकत्वेन वितर्को यस्मिन् तदेकत्ववितर्कम् विगतार्थ-व्यञ्जन-योगसंक्रमत्वाद् अवीचारं द्वितीयं शुक्लध्यानम् । तथाहि – एकपरमाणावेकमेव पर्यायामालम्ब्यत्वेनादायान्यतरैकयोगबलाधानमाश्रितव्यतिरिक्ताशेषार्थव्यञ्जनयोगसंक्रमविषयचिन्ताविक्षेपरहितं बहुतरकर्मनिर्जरारूपं निःशेषमोहनीयक्षयानन्तरं युगपद्भाविघातिकर्मत्रयध्वंसनसमर्थमकषायच्छद्मस्थवीतरागगुणस्थानभूमिकं क्षपको द्वितीयं शुक्लध्यानमासाऔर क्षपकश्रेणि में हो तब मोक्षफलक होता है। यह आद्य शुक्लध्यान निर्जरामय ही होता है, क्योंकि इस से आत्मगत प्रभूत कर्मराशि का क्षय हो जाता है। श्री तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है कि तप से संवर एवं निर्जरा होते हैं - यह शुक्लध्यान उत्कृष्ट अभ्यन्तरतपस्वरूप है इस लिये यह ध्यान निर्जरात्मक कहा गया है। यह निर्जरा तत्त्व भी जीव-अजीवराशियुगल से कथंचित् अभिन्न है क्योंकि निर्जरा कर्मवियोगरूप है और वियुक्तात्मा एवं कर्म से कर्मवियोग कथंचिद् अभिन्न होता है, जैसे कि दो अंगुलियों का वियोग उन से कथंचिद् अभिन्न होता है। एकान्तवाद में तो संसारी जीव एकान्त से अवियुक्त ही होता है, अतः मुक्त काल में भी कर्म का अवियोग पूर्ववत् तदवस्थ बना रहेगा। यदि मुक्त काल में वियोग स्वीकार करेंगे तो पूर्वकाल में भी वियुक्तावस्थावाला स्वभाव ही प्रसक्त होने से आत्मा को नित्य-मुक्त मानना पडेगा। यदि ऐसा मान लेंगे तो वियोगकथा भी समाप्त हो जायेगी क्योंकि वियोग तो बन्धात्मक संयोग का विनाशरूप है, बन्ध ही नहीं होगा तो वियोग होगा कैसे ? विनाश तो वस्तुधर्मस्वरूप यानी सप्रतियोगी है, प्रतियोगी बन्ध है उस के विना विनाश हो नहीं सकता। दो अंगुली संयुक्त है ऐसा देखने के बाद कभी ‘अब ये दोनों वियुक्त है' ऐसा व्यवहार किया जाता है, पूर्व में संयुक्तावस्था ही न हो तब ‘वियुक्त' कैसे कही जायेगी ? निष्कर्ष यह है कि एकान्तवाद में निर्जरातत्त्व की संगति नहीं बैठेगी। * द्वितीयशुक्लध्यान स्वरूप-कार्य-फल * एकत्ववितर्कविचार :- जिस ध्यान में वैविध्य को छोड कर एकरूप से वितर्क (श्रुतज्ञान) किया जाता है उसे एकत्ववितर्क कहा जाता है। इस ध्यान में अर्थ-व्यञ्जन और योगों का संक्रमण नहीं होता, अवस्थित होते हैं, इस लिये यह द्वितीय शुक्ल ध्यान निर्वीचार है। स्पष्टीकरण- इस ध्यान में एक परमाणु के एक ही पर्याय को विषय बना कर ध्यान की धारा बहती रहती है। किसी भी एक योगबल का यहाँ आधान रहता है। जिस योगबल का आश्रयण किया गया है उस से अन्य योगयुगल, अर्थ या व्यञ्जनों में यहाँ संक्रम नहीं होता, न उस के बारे में कोई चिन्ताविशेष रहता है। इस ध्यान में प्रचुरतम कर्मनिर्जरा होती है। समग्र मोहनीय कर्म क्षीण होने के बाद इस ध्यान में ऐसा प्रबल सामर्थ्य रहता है कि वह एक साथ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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