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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६३ अनभिव्यक्तप्राणाऽपानप्रचारत्वमित्यादिगुणयोगि बाह्यम् परेषामनुमेयमात्मनश्च स्वसंवेद्यम् । आध्यात्मिकं तु - पृथग्भावः = पृथक्त्वं - नानात्वम्, वितर्कः = श्रुतज्ञानं द्वादशाङ्गम्, वीचारः = अर्थव्यञ्जन-योगसंक्रान्तिः । व्यञ्जनं = अभिधानम्, तद्विषयोऽर्थः, मनो-वाक्-कायलक्षणो योगः, संक्रान्तिः = परस्परतः परिवर्तनम् । पृथक्त्वेन वितर्कस्यार्थ-व्यञ्जन-योगेषु संक्रान्तिर्वीचारः यस्मिन् अस्ति तत् पृथक्त्ववितर्कवीचारम् । __तथाहि – असावुत्तमसंहननो भावयति (:) विजृम्भितपुरुषकारवीर्यसामर्थ्यः संहृताशेषचित्तव्याक्षेपः कर्मप्रकृतीः स्थित्यनुभागादिभिर्हासयन् महासंवरसामर्थ्यतो मोहनीयमचिन्त्यसामर्थ्यमशेषमुपशमयन् क्षपयन् वा द्रव्यपरमाणुं भावपरमाणुं चैकमवलम्ब्य द्रव्य-पर्यायार्थाद् व्यञ्जनम्, व्यञ्जनाद्वाऽर्थम्, योगाद् योगान्तरम्, व्यञ्जनाद् व्यञ्जनान्तरं च संक्रामन् पृथक्त्ववितर्कवीचारं शुक्लतरलेश्यमुपशमक-क्षपक-गुणस्थानभूमिकमन्तर्मुहर्ताद्धं क्षायोपशमिकभूमिकं प्रायः पूर्वधरनिषेव्यमाश्रितार्थव्यञ्जनयोगसंक्रमणं श्रेणिस्थिर बन जाय, थोडा सा भी स्थूल कम्पन उस में न हो। न जम्हाई आवे, न बगासा, न छींक हो । श्वासोच्छ्वास की क्रिया भी मन्द मन्द चलती रहे.. इत्यादि लक्षण बाह्य शुक्ल ध्यान के हैं। स्वयं को यह अनुभवसिद्ध रहता है, दूसरे को अनुमानगोचर होता है। ___ शुक्लध्यान के आद्य भेदयुगल ही आध्यात्मिक शुक्ल ध्यान हैं। उस में पहला है - पृथक्त्ववितर्कविचार । इस का विवेचन करते हैं। पृथक्त्व यानी पृथग्भाव अथवा वैविध्य । वितर्क यानी द्वादशांग आगमों का ज्ञान, यानी श्रृतज्ञान । वीचार का मतलब है अर्थ, व्यञ्जन और योगों का संक्रमण । व्यञ्जन यानी नाम या शब्द, अर्थ यानी उस शब्द का वाच्यार्थ और योग यानी मन-वचन-काया। संक्रान्ति यानी एक शब्द के ऊपर से ध्यान का दूसरे शब्द पर संक्रमण यानी परिवर्तन, एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर और एक योग से दूसरे योग में परिवर्तन। विविधरूपों में वितर्क यानी श्रुतज्ञानमय परिणाम का अर्थ-व्यञ्जन-योगों में संक्रमण यानी विचार जिस ध्यान में होता है वही पृथक्त्ववितर्कवीचार संज्ञक शुक्लध्यान का प्रथमभेद है। * आद्य शुक्लध्यानभेद का विशेष परिचय * स्पष्टीकरण :- भाव-साधु शुक्लध्यान का अवलम्बन करता है। ऐसे भावसाधु जो उत्तम यानी प्रथम वज्र-ऋषभ-नाराच संघयणबलवाला होता है, जिस में कठोर पुरुषार्थ करने के लिये अदम्य उत्साह का सामर्थ्य होता है, जो समग्र चित्तविक्षेपों का संहार कर लेता है, कर्मप्रकृतियों की स्थिति और अशुभ रस को क्षीण करता है, महासंवर के दृढबल से जो अचिन्त्यशक्तिशालि समग्र मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय प्रारम्भ कर देता है, किसी एक द्रव्य या भाव परमाणु को अपने ध्यान का विषय करता हुआ द्रव्य-पर्यायोभयस्वरूप अर्थ से व्यञ्जन की ओर, व्यञ्जन से अर्थ की ओर- अथवा एक योग से अन्ययोग में - एक व्यञ्जन से अन्य व्यञ्जन की ओर संक्रमण करता रहता है - ऐसा भावसाधु पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्लध्यान का आरोहण करता है। शुक्लध्यान के इस भेद में लेश्या अत्यन्त शुक्ल यानी निर्मल होती है, उपशमश्रेणि या क्षपक श्रेणि के जो अष्टम आदि गुणस्थान हैं उन की भूमिका पर यह शुक्लध्यान एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जाग्रत रहता है, इस में औदयिक नहीं किन्तु मोहनीय के क्षायोपशमिकभाव की मुख्य भूमिका रहती है। प्रायशः १४ पूर्वधर महर्षियों को यह ध्यान होता है, किसी एक परमाणु आदि अर्थ को आलम्बन कर के यह ध्यान व्यञ्जन और योग में संक्रान्त होता रहता है। यदि यह ध्यान उपशमश्रेणि में हो तब स्वर्गफलक होता है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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