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________________ ३१२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् संवरः' (त० सू० ९-१) इति वचनात्, गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षादीनां चास्रवप्रतिबन्धकारित्वात् । अयमपि जीवाऽजीवाभ्यां कथंचिदभिन्नः, भेदाभेदैकान्ते दोषोपपतेः । न चायमेकान्तवादिनां घटते, मिथ्याज्ञानाद् मिथ्याज्ञानस्य निरोधानुपपत्तेः। संवरश्च द्विविधः देश-सर्वभेदात् । पीत-पद्मलेश्याबलाधानमप्रमत्तसंयतस्यान्तर्मुहर्त्तकालप्रमाणं स्वर्गसुखनिबन्धनमेतद् धर्मध्यानं प्रतिपत्तव्यम् । ___ कषायदोषमलापगमात् शुचित्वम् तदनुषङ्गात् शुक्लं ध्यानम् । तच्च द्विविधम् शुक्ल-परमशुक्लभेदात् । तत्र पृथक्त्ववितर्कवीचारम् एकत्ववितर्कावीचारं चेति शुक्लं द्विधा । परमशुक्लमपि सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरतक्रियानिर्वर्ति चेति द्विधा। बाह्याध्यात्मिक भेदाच्चैतदपि द्विविधम् । गात्र-दृष्टि परिस्पन्दाभावः जृम्भोद्गारक्षवथुविरहः का प्रतिपक्षरूप है। तत्त्वार्थसूत्र (९-१) में भी संवर को आस्रवनिरोधस्वरूप ही दर्शाया गया है। ___यहाँ यह बात चल रही है कि सकषाय आत्मा का अप्रशस्त आत्मपरिणाम आस्रवात्मक है, आर्त्तरौद्रध्यान इसीलिये आस्रवस्वरूप है। धर्मध्यान प्रशस्त परिणामरूप होने से आस्रव का विरोधी है इसलिये संवररूप है – ऐसा कह कर व्याख्याकार ने संवरतत्त्व का लेशतः निरूपण कर दिया। मनोगुप्ति-वचनगुप्ति और कायगुप्ति तथा इर्या-भाषा आदि पाँच समितियाँ तथा अनित्यादि बारह एवं मैत्री आदि चार, पुरी सोलह धर्मानुप्रेक्षा ये सब आस्रव के विरोधी होने से संवरात्मक हैं। ____ संवरपरिणाम भी जीव-अजीव युगल से कथंचिद् अभिन्न ही है, एकान्त भिन्न अथवा एकान्त अभिन्न मानने में पूर्वोक्त बहुत दोष आ पडते हैं। एकान्तवादियों के दर्शन में इस प्रकार के संवरतत्त्व का कोई सुगन्ध ही नहीं है, क्योंकि संवर तो मिथ्याज्ञान का विरोधी है किन्तु एकान्तवादियों का ज्ञान मिथ्याज्ञानरूप ही होता है तो मिथ्याज्ञान से मिथ्याज्ञान का निरोध कैसे शक्य होगा ? संवर के दो भेद हैं, देशसंवर और सर्वसंवर । अर्थात् इन्हें देशविरति (गृहस्थधर्म) और सर्वविरति (साधुधर्म) कह सकते हैं। अथवा शैलेशी में चरम संवर सर्वसंवर रूप होता है और उस के पहले सब देश संवर यानी आंशिक संवर होता है। ___ यह जो धर्मध्यानात्मक संवर है वह पीतलेश्या और पद्मलेश्या के शुभ अध्यवसाय का पुष्टिकारक है। अप्रमत्तसंयत को धर्म (या शुक्ल) ध्यान ही होता है जो कि लगातार अन्तर्मुहूर्त्तपर्यन्त अवस्थित रह सकता है, बाद में कुछ पलटा आ जाता है, पुनश्च अन्तर्मुहूर्त (Within 48 minutes) अवस्थित रहता है ऐसा हो सकता है। धर्मध्यान का फल स्वर्गीय सुख है। * शुक्लध्यान : स्वरूप एवं बाह्य-आध्यात्मिक भेद * अब व्याख्याकार निर्जरातत्त्व दिखाने के लिये शुक्ल ध्यान का स्वरूप एवं भेद का विवेचन करते हैं। जो ध्यान शुचित्व (= स्वच्छता) से अलंकृत है वह शुक्ल ध्यान कहा जाता है। यहाँ शुचित्व यानी कषायों की मलिनता के दाग की धुलाई। शुक्ल ध्यान के दो भेद हैं, A शुक्ल और B परमशुक्ल । A शुक्ल के दो भेद हैं १ पृथक्त्ववितर्कवीचार और २ एकत्ववितर्क अवीचार | B परमशुक्ल के भी दो भेद हैं, १ सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती और २ व्युपरतक्रियानिर्वर्ती । शुक्लध्यान के इस ढंग से भी दो भेद हैं बाह्य और आध्यात्मिक । बाह्य :- शरीर और दृष्टि अत्यन्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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