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________________ पश्चमः खण्डः - का० ६३ ३२३ प्रेरितः सर्वत्र प्रवर्तेत न वा क्वचित्, भेदनिबन्धनत्वात् प्रवृतेः। सामान्यस्याऽनर्थक्रियाकारितया च प्रवृत्तिनिबन्धनत्वाऽयोगात्। ____ अथापि स्यात् यदाऽयं प्रतिपत्ता वाक्यमश्रुतपूर्वं श्रृणोति तदा पदानां संकेतकालानुभूतानामर्थं सामान्यलक्षणमेव प्रतिपद्यते, या तु वाक्यार्थप्रतिपत्तिः साऽपेक्षा-संनिधानाभ्यां विशेषण-विशेष्यभावात् पदार्थप्रतिपत्तिनिबन्धना, न पुनस्ततो वाक्यात्, तथाविधस्य तस्य स्वार्थेन सह सम्बन्धाऽप्रतिपत्तेः। वाक्यमेव च प्रवृत्ति-निवृत्तिव्यवहारक्षमम् न पदम्, तस्याऽनर्थक्रियाकारिसामान्यप्रतिपादकत्वेनाऽप्रवृत्त्यङ्गत्वात् । अत एव न विवक्षाप्रतिभासिनम) प्रतिपादयन्तः शब्दा अनुमानतामासादयन्ति, अगृहीतप्रतिबन्धादपि वाक्यविशेषाद्यथोक्तन्यायतो वाक्यार्थप्रतिपत्तेः। अनेनैवाभिप्रायेण सौगता वाक्यगतां चिन्तामनादृत्य पदमेवानुमानेऽन्तर्भावितवन्तः। उक्तं च मीमांसकैः - "वाक्यार्थे तु पदार्थेभ्यः सम्बन्धानुगमाद् ऋते । बुद्धिरुत्पद्यते तस्माद् भिन्ना साऽप्यक्षबुद्धिवत् ।। वाक्येष्वदृष्टेष्वपि सार्थकेषु पदार्थचिन्मात्रतया प्रतीतिम् । दृष्ट्वानुमानव्यतिरेकभीताः क्लिष्टाः पदाभेदविचारणायाम् ।।" ___ (श्लो० वा० शब्द प० श्लो० १०९, १११) इति । ____पहले विकल्प में, सामान्य को वाच्यार्थ नहीं मान सकते, क्योंकि उस का स्वभाव है अनुवृत्ति, अर्थात् वह कोई अन्यव्यावृत्त नियत एक व्यक्ति स्वरूप नहीं होने से यदि उस को शब्दवाच्य माना जायेगा तो जब किसी को घटादि लाने के लिये आदेश होगा तब वह समस्त घट व्यक्ति घटसामान्य क्रोडीकृत होने से उन सभी को लाने की प्रवृत्ति करेगा अथवा किसी भी एक को न लायेगा। ऐसा क्यों ? इस लिये कि प्रवृत्ति भेदावलम्बी यानी व्यक्तिविशेष के लिये ही होती है न कि सामान्य के लिये । सामान्य किसी भी अर्थक्रियासम्पादन में उपयोगी न होने से प्रवृत्तिकारक नहीं हो सकता। ___* सामान्यवादी की ओर से प्रथम विकल्प का समर्थन * पूर्वपक्ष :- जब वेत्ता पुरुष अश्रुतपूर्व वाक्य को सुनता है तब संकेतकाल में जिस पद का जो सामान्य अर्थ अनुभूत किया था उसी सामान्य अर्थ का बोध होता है। इस प्रकार पदार्थ का बोध होने के बाद, परस्पर अन्वय की अपेक्षा और संनिधि के जरिये विशेषण-विशेष्यभाव से गर्भित जो वाक्यार्थबोध होता है वह पूर्वजातपदार्थबोधमूलक ही होता है, न कि वाक्यश्रवणमूलक; कारण यह है कि पूर्व में तथाविध विशेषण-विशेष्यभावापन्न वाक्यार्थ के साथ उस वाक्य के संसर्ग का भान कभी हुआ नहीं है। प्रवृत्ति-निवृत्तिव्यवहार के लिये तो वाक्य ही समर्थ होता है, पद नहीं, क्योंकि पद का वाच्यार्थभूत सामान्य अर्थक्रियासम्पादक न होने से प्रवृत्ति-उपयोगी नहीं होता। जब कि वाक्य श्रवण के बाद तो पदार्थबोध और उस के बाद वाक्यार्थ का भान पूर्वोक्त रीति से होता है। इसी लिये अनुमान और शाब्द में भेद सुरक्षित रहता है। यद्यपि 'विवक्षा-अन्तर्गत अर्थ का प्रतिपादन एक वाक्यगत शब्दों से होता है,' ऐसा बौद्ध कहता है, अर्थात् शब्द से विवक्षा का अनुमान होता है और अनुमिति के विषयरूप में विवक्षाअन्तर्गत अर्थ का बोध होता है, इस लिये शब्द से होने वाला अर्थबोध अनुमितिरूप है – शब्द अनुमानात्मक है... इत्यादि बौद्ध भले ही कहे, किन्तु फिर भी यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि अश्रुतपूर्व वाक्य का किसी भी विवक्षा-अन्तर्गत अर्थों के साथ पूर्वगृहीत प्रतिबन्ध मौजूद नहीं होने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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